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 झारखंड में 28 साल से चल रहा आदिवासीयों का आंदोलन

 'जान देंगे, पर जमीन नहीं देंगे !' इस नारे के साथ झारखंड में हजारों ग्रामीणों का एक आंदोलन पिछले 28 वर्षों से चल रहा है. यह आंदोलन झारखंड की प्रसिद्ध नेतरहाट पहाड़ी के पास 245 गांवों की जमीन को सेना की फायरिंग प्रैक्टिस के लिए नोटिफाई किये जाने के विरोध में है. 'नेतरहाट फील्ड फायरिंग रेंज' के सरकारी नोटिफिकेशन को रद्द करने की मांग को लेकर इलाके के ग्रामीण 1994 से ही आंदोलन कर रहे हैं. उन्हें आशंका है कि सेना के लिए फायरिंग रेंज के नाम पर सरकार इस इलाके की जमीन हमेशा के लिए अपने कब्जे में लेना चाहती है. ग्रामीणों का कहना है कि वे जान दे देंगे, लेकिन जमीन नहीं देंगे.

इसी मुद्दे पर नेतरहाट के टुटवापानी से पदयात्रा करते हुए सैकड़ों ग्रामीणों केएक जत्थे नेसोमवार को रांची पहुंचकर राजभवन के समक्ष प्रदर्शन किया. पदयात्रा और प्रदर्शन में 95 साल के एमानुएल भी शामिल थे.

क्या है नेतरहाट फील्ड फायरिंग रेंज का मामला
नेतरहाट फील्ड फायरिंग रेंज का मसला समझने के लिए थोड़ा पीछे चलना होगा. वर्ष था 1954 और तब झारखंड एकीकृत बिहार का हिस्सा था. 1954 में केंद्र सरकार ने ब्रिटिश काल से चले आ रहे कानून 'मैनुवर्स फील्ड फायरिंग एंड आर्टिलरी प्रैटिक्स एक्ट, 1938' की धारा 9 के तहत नेतरहाट पठार के सात गांवों को तोपाभ्यास (तोप से गोले दागने का अभ्यास) के लिए नोटिफाई किया था. इसके बाद वर्ष 1992 में फायरिंग रेंज का दायरा बढ़ा दिया गया और इसके अंतर्गत 7 गांवों से बढ़ाकर 245 गांवों की कुल 1471 वर्ग किलोमीटर इलाके को शामिल कर दिया गया. इस बार इलाके को वर्ष 2002 तक के लिए फायरिंग रेंज घोषित किया गया था.

1964 से हर साल यहां आती है सेना की बटालियन 
सेना की टुकड़ियां वर्ष 1964 से 1994 तक यहां हर साल फायरिंग और तोप दागने की प्रैक्टिस के लिए आती रहीं. ग्रामीणों का आरोप है कि फायरिंग और तोप दागने के दौरान उन्हें काफी नुकसान उठाना पड़ा. आंदोलन की अगुवाई करने वाले जेरोम जेराल्ड कुजूर ने ग्रामीणों को हुए नुकसान को लेकर एक दस्तावेज तैयार किया है. वह कहते हैं, सेना के अभ्यास के दौरान 30 ग्रामीणों को जान गंवानी पड़ी. कई महिलाओं के साथ बलात्कार की घटनाएं घटीं. इनमें से दो महिलाओं को जान गंवानी पड़ी. तीन लोग पूरी तरह अपंग हो गयी. अनगिनत वन्य प्राणियों और मवेशियों की मौत हो गयी. फसलों को भारी नुकसान हुआ इलाके का वातावरण बारूदी गंध से विषाक्त हो गया.

1994 में इस वजह से फूटा ग्रामीणों का गुस्सा
ऐसी घटनाओं को लेकर ग्रामीणों का आक्रोश संगठित रूप से पहली बार तब फूटा, जब वर्ष 1994 में यहां सेना की टुकड़ियां तोप और बख्तरबंद गाड़ियों के साथ फायरिंग अभ्यास के लिए पहुंचीं. 22 मार्च 1994 को हजारों ग्रामीण सेना की गाड़ियों के आगे लेट गयीं. आंदोलन की अगुवाई महिलाएं कर रही थीं. विरोध इतना जबर्दस्त था कि इसकी गूंज पूरे देश में पहुंची और आखिरकार सेना की गाड़ियों को वापस लौटना पड़ा. तभी से यह आंदोलन लगातार चल रहा है. फायरिंग रेंज के नोटिफिकेशन को रद्द करने की मांग को लेकर तब से सैकड़ों दफा सभा, जुलूस, प्रदर्शन हुए हैं. आंदोलनकारी हर साल 22-23 मार्च को विरोध और संकल्प दिवस मनाते हैं. इस दिन हजारों लोग नेतरहाट के टुटवापानी नामक जगह पर इकट्ठा होते हैं. बीते 22 मार्च को आंदोलन की 28वीं वर्षगांठ पर हुई सभा में किसान आंदोलन के नेता राकेश टिकैत भी शामिल हुए थे.

1994 से लगातार जारी आंदोलन के बीच वर्ष 1999 में नेतरहाट फील्ड फायरिंग रेंज को लेकर सरकार ने एक नया नोटिफिकेशन जारी किया और इसकी अवधि 11 मई 2022 तक के लिए बढ़ा दी. हालांकि 1994 में ग्रामीणों के जोरदार आंदोलन के बाद से सेना ने यहां फायरिंग प्रैक्टिस नहीं की है, लेकिन लोग इस बात को लेकर हमेशा आशंकित हैं कि फायरिंग रेंज का नोटिफिकेशन एक बार फिर बढ़ाया जा सकता है. भाकपा माले के विधायक विनोद सिंह ने इसे लेकर पिछले दिनों विधानसभा में सवाल पूछा था कि क्या नेतरहाट फील्ड फायरिंग रेंज की अवधि 11 मई 2022 को समाप्त हो जायेगी या इसे आगे बढ़ाये जाने का प्रस्ताव है? इसपर सरकार की ओर से स्पष्ट जवाब सामने नहीं आया.सोमवार को रांची पहुंचे ग्रामीणों के जत्थे में 95 वर्षीय एमानुएल भी शामिल थे. उन्होंने कहा, हम सरकार से इस बात की गारंटी चाहते हैं कि 11 मई, 2022 के बाद हमारे गांव फायरिंग रेंज से मुक्त हो जायेंगे.

आंदोलन के सबसे बड़े अगुवा जेरोम जेराल्ड कुजूर ने बताया कि हमने राज्यपाल रमेश बैस को अपनी मांगों को लेकर ज्ञापन सौंपा है. हमारी सबसे मुख्य मांग है कि सभी 245 गांव फील्ड फायरिंग रेंज से मुक्त हो. यह पूरा क्षेत्र भारतीय संविधान के पांचवीं अनुसूची के तहत आता है. 28 वर्षों से आंदोलन कर रहे हैं. नेतरहाट फील्ड फायरिंग रेंज की अवधि 11 मई 2022 को समाप्त हो रही है. गृह मंत्रालय को अधिसूचना रद्द करनी चाहिए. यह 245 गांवों में बसी लगभग ढाई लाख की आबादी के जीवन-मरण का सवाल है.

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