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 Jharkhand Board Class 10 History Notes | मुद्रण संस्कृति और आधुनिक दुनिया   

 JAC Board Solution For Class 10TH ( Social science ) History  Chapter 7

             (Print Culture and the Modern World)

प्रश्न 1. '17 वीं सदी तक चीन में नगरीय संस्कृति में उछाल आया तो
मुद्रण के लाभ विभिन्न रूपों को पा गए।' सोदाहरण स्पष्ट करें।
उत्तर―अब मुद्रित सामग्री के उपभोक्ता सिर्फ विद्वान और अधिकारी ही नहीं
रहे । व्यापारी अपने रोजमर्रा के कारोबार की जानकारी लेने के लिए मुद्रित सामग्री
का प्रयोग करने लगे। पढ़ना अब एक मनोविनोद की गतिविधि बनता जा रहा
था। पाठक काल्पनिक किस्से, कविताएँ, आत्मकथाएँ, शास्त्रीय साहित्यिक
कृतियों के संकलन और रूमानी नाटक पसंद करने लगे। अमीर महिलाओं ने भी
पढ़ना शुरू कर दिया और कुछ ने अपनी लिखी कविता और नाटक भी प्रकाशित
करवाए । विद्वानों और अधिकारियों की पलियों ने अपना साहित्य छपवाया तथा
वेश्याओं ने अपने जीवन के विषय में लिखना शुरू कर दिया।

प्रश्न 2. यूरोप में वुडब्लॉक विधि क्यों प्रचलित हुई ?
अथवा, हस्तलिखित पांडुलिपियों की क्या कमियाँ थी ?
उत्तर―(i) हस्तलिखित पांडुलिपियों से बढ़ती हुई पुस्तकों की माँग कभी भी
पूरी नहीं हो सकती थी।

(ii) नकल उतारना बहुत खर्चीला, श्रमसाध्य तथा समय लेने वाला व्यवसाय था ।

(iii) पांडुलिपियाँ प्रायः नाजुक होती थीं और उनके लाने-ले जाने, रख-रखाव
में बहुत सी कठिनाइयाँ थीं। 15वीं सदी के प्रारंभ में यूरोप में बड़े पैमाने पर
वुडबलॉक की छपाई का प्रयोग करके ताश के पत्ते, कपड़े और छोटी-छोटी
टिप्पणियों के साथ धार्मिक चित्र छापे जा रहे थे।

प्रश्न 3. 'हाथ की छपाई की अपेक्षा मशीनी छपाई ने मुद्रण में क्रांति
ला दी थी।' स्पष्ट कीजिए।
उत्तर―(i) 1450 से 1550 तक के 100 वर्षों में यूरोप के अधिकतर देशों
में छापेखाने स्थापित हो चुके थे।

(ii) काम की खोज तथा नए को शुरू करने में सहायता करने के लिए
जर्मनी से प्रिंटरों ने दूसरे देशों में जाना शुरू कर दिया । जैसे ही अनेक प्रिटिंग प्रेसें
स्थापित हुई, पुस्तकों के उत्पादन में भारी उछाल आ गया ।

(iii) 15वीं सदी के दूसरे हिस्से में यूरोप में 2 करोड़ छपी पुस्तकों की
प्रतियों की बाढ़ आ चुकी थी। यह संख्या 16वीं सदी में लगभग 20 करोड़
प्रतियाँ हो गई।

प्रश्न 4. 'मुद्रण ने ज्ञानोदय के चिंतकों के विचारों को लोकप्रिय बनाया'
स्पष्ट करें।
उत्तर―सामूहिक रूप में उनका लेखन परंपरा, अंधविश्वास तथा तानाशाही
पर विवेचनात्मक टिप्पणियाँ करता था। उन्होंने रीति-रिवाजों की जगह विवेक के
शासन पर बल दिया। उन्होंने मांग की कि प्रत्येक बात निर्णय विवेक के
आलोक में होना चाहिए। उन्होंने पवित्र गिरजाघरों के अधिकारियों तथा सरकार की
तानाशाही शक्ति पर प्रहार किए और इस प्रकार प्रथाओं पर आधारित सामाजिक
व्यवस्था की वैधता पर प्रश्नचिन्ह लगाया । वाल्तेयर और रूसो जैसे दार्शनिकों की
पुस्तकें भारी मात्रा में पढ़ी जाने लगीं। जिन्होंने उनकी पुस्तकें पढ़ी, उन्होंने उन्हीं की
आँख से देखा और ये आँखें प्रश्नपूर्ण, विवेचनात्मक तथा तर्कपूर्ण थीं।

प्रश्न 5. लुई सेबेस्तिएँ मर्सिए कौन था ?
उत्तर―लुई सेबेस्तिएँ मर्सिए 18वीं सदी का एक फ्रांसीसी नाटककार तथा
उपन्यासकार था। उसने घोषणा की, "छापाखाना प्रगति का सबसे शतिशाली
औजार है, इससे बन रही जनमत की आँधी में निरंकुशवाद उड़ जाएगा।" उसके
अधिकतर उपन्यासों में नायक प्रायः पुस्तकें पढ़ने से बदल जाते हैं । ज्ञानोदय लाने
और निरंकुशवादी आधार को नष्ट करने में छापेखाने की भूमिका के विषय में वे
कहते हैं, "हे निरंकुशवादी शासकों, काँपो ! आभासी लेखक के आगे तुम हिल
उठोगे। काँपो।"

प्रश्न 6. बहुत सारे मजदूर स्पिनिंग जेनी के इस्तेमाल का विरोध क्यों
कर रहे थे?                                                [JAC 2009 (A)]
उत्तर―सन् 1764 में स्पिनिंग जेनी का आविष्कार जेम्स हरग्रीब्ज द्वारा
हुआ। इस मशीन ने कताई की प्रक्रिया तेज कर दी जिसके कारण अब मजदूरों
की माँग घट गयी। एक ही पहिये को घुमाकर एक मजदूर सारी स्पीडल को घुमा
देता था और एक साथ कई धागों का निर्माण शुरू हो जाते थे।
   बेरोजगारी के डर से वैसे मजदूर जो हाथों से धागा काटकर गुजारा करते थे
घबड़ा गये और मजदूरों ने इन नई मशीनों को लगाने का विरोध किया। महिला
मजदूरों का विरोध एवं तोड़-फोड़ काफी समय तक चलती रहा। उन्होंने ऐसे
कारखानों पर आक्रमण भी किया।

प्रश्न 7. वर्नाक्युलर या देशी प्रेस एक्ट पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
                                               [JAC 2009 (A); 2014 (A)]
उत्तर : वर्नाकुलर एक्ट 1878 के तत्वावधान में ब्रिटिश सरकार द्वारा भाषाई
अखबारों पर नियमित नजर रखने का प्रावधान किया गया । तत्कालीन पत्रों में
दास-व्यापार, हड़प नीति आदि से सम्बन्धित भारतीय लेखों से ब्रिटिश साम्राज्य
खफा था। अत: वह एक्ट लगाया गया था।

प्रश्न 8. जापान की मुद्रण संस्कृति की कुछ महत्त्वपूर्ण विशेषताएँ बताएँ।
उत्तर―(i) 768–770 ई० में चीन के बौद्ध प्रचारकों ने जापान में हस्तमुद्रण
प्रौद्योगिकी की स्थापना की थी।

(ii) जापान की प्राचीनतम 868 ई० में छपी पुस्तक डायमंड सूत्र है, जिसमें
पाठ की छह शीटों के साथ-साथ काठ पर खुदे चित्र भी हैं।

(iii) चित्रों की छपाई के लिए ताश के पत्ते, कपड़े तथा कागज के नोटों को
प्रयुक्त किया जाता था।

(iv) मध्यकालीन जापान में कवि भी छपते थे और गद्यकार भी । पुस्तकें
सस्ती और सुलभ थीं।

(v) 18वीं सदी के अंत में एदो (बाद में जिसे तोक्यो के नाम से जाना गया)
के शहरी क्षेत्र की चित्रकारी में शालीन संस्कृति का पता मिलता है जिसमें हम
कलाकारों, वेश्याओं तथा चायघर में मीटिंगों को देख सकते हैं।

प्रश्न 9. यूरोप में मुद्रण संस्कृति का विकास कैसे हुआ?
उत्तर―(i) 11वीं सदी में चीन से रेशम मार्ग के रास्ते कागज यूरोप पहुँचा
था। इसके साथ ही लिपिकों द्वारा पांडुलिपियों के उत्पादन का कार्य एक सामान्य
कारोबार बन गया।

(ii) 1295 में मार्को पोलो नामक महान खोजी यात्री चीन में कई साल तक
खोज करने के बाद इटली लौटा तो अपने साथ वुडब्लॉक मुद्रण की तकनीक भी
लेकर आया । अब इतालवी लोगों ने वुडब्लॉक मुद्रण द्वारा पुस्तकें छापना शुरू कर
दिया । यह तकनीक यूरोप के अन्य भागों में भी प्रचलित हो गई।

(iii) 15वीं सदी के प्रारम्भ में यूरोप में कपड़ा छापने तथा सादा व संक्षिप्त
टिप्प्णी के साथ धार्मिक चित्र छापने के लिए वुडब्लॉक मुद्रण का प्रयोग व्यापक
रूप में होने लगा।

(iv) परन्तु इससे लोगों की मांग की पूर्ति नहीं हो पाती थी। पुस्तके छापने
के लिए इससे भी तेज और सस्ती मुद्रण तकनीक की जरूरत थी। ऐसा छपाई
की एक नई तकनीक के आविष्कार से ही संभव था। 1430 के दशक में
स्ट्रैसबर्ग के योहान गुटेन्बर्ग ने पहली प्रसिद्ध प्रिंटिंग प्रेस विकसित की।

प्रश्न 10. योहान गुटेनबर्ग कौन था ? मुद्रण-इतिहास में उसकी भूमिका
की चर्चा कीजिए।
उत्तर―योहान गुटेन्बर्ग एक जर्मन सुनार तथा अन्वेषक था जिसने यूरोप में
चल प्रकार की मुद्रण तकनीक की खोज की थी।
     गुटेन्बर्ग एक व्यापारी का बेटा था और वह खेती की एक बड़ी रियासत में
पल-बढ़कर बड़ा हुआ था। वह बचपन से ही तेल और जैतून पेरने की मशीनें
देखता आया था। बाद में उसने पत्थर पर पॉलिश करने की कला सीखी, फिर
एक कुशल सुनार बन गया और शीशे को इच्छित आकृतियों में गढ़ने में विशेषज्ञता
प्राप्त की जिससे टूम-छल्ले बनते थे (टूम-छल्ले एक प्रकार के सस्ते व निम्न के
आभूषण होते थे) उसने अपने ज्ञान और अनुभव का प्रयोग अपने नए आविष्कार
में किया । जैतून प्रेस ही प्रिंटिंग प्रेस का प्रतिदर्श बना और साँचे का उपयोग अक्षरों
की धातुई आकृतियों को गढ़ने के लिए किया गया। उसने पहली पुस्तक
'बाइबिल' छापी जो 42 पंक्तियों में थी। इस बाइबल को प्रायः गुटेनबर्ग बाइबिल
के नाम से जाना जाता है। उसे लगभग 180 प्रतियाँ बनाने में तीन वर्ष लगे जो
उस काल में काफी तेज काम था।

प्रश्न 11. गुटेन्बर्ग प्रेस के आविष्कार के बाद यूरोप में उत्पादित नयी
पुस्तकों की प्रमुख विशेषताएँ बताइए।
उत्तर―(i) मुद्रित पुस्तकें रूपरेखा और साज-सज्जा में हस्तलिखित पांडुलिपियों
से पूर्णत: मेल खाती थीं।

(ii) धातुई अक्षर हाथ की सजावट शैली का अनुकरण करते थे।

(iii) हाशिए पर फूल पत्तियों की डिजाइन बनाई जाती थी।

(iv) चित्र प्रायः रंगीन दिए जाते थे।

(v) अमीरों के लिए निर्मित पुस्तकों के छपे पृष्ठों पर हाशिए की जगह
बेल-बूटों के लिए खाली छोड़ दी जाती थी।

(vi) खरीददार अपनी सोच के अनुसार डिजाइन और रंग स्वयं तय करके
उसे संवार सकता था।

प्रश्न 12 निम्नलिखित के कारण दें―
(क) वुडब्लॉक प्रिंट या तख्ती की छपाई यूरोप में 1295 के बाद
आई।
(ख) मार्टिन लूथर मुद्रण के पक्ष में था और उसने इसकी प्रशंसा की।
(ग) रोमन कैथलिक चर्चे ने 16वीं सदी के मध्य से प्रतिबंधित
पुस्तकों की सूची रखनी शुरू कर दी।
(घ) महात्मा गाँधी ने कहा कि स्वराज की लड़ाई दरअसल अभिव्यक्ति,
प्रेस और सामूहिकता के लिए लड़ाई है।             [JAC 2017(A)]
उत्तर―(क) मार्को पोलो नामक अन्वेषक चीन में कई वर्ष तक खोज करने
के बाद 1295 में इटली लौटा था। वह अपने साथ चीन में प्रचलित बुडब्लॉक
मुद्रण की तकनीक भी लेकर आया था ।

(ख) प्रिंटिंग प्रेस ने ही उसे रोमन कैथलिक चर्च के कई रीति-रिवाजों तथा
प्रथाओं की आलोचना करने का अवसर दिया था।

(ग) मुद्रित लोकप्रिक साहित्य के बल पर कम शिक्षित लोग धर्म की
अलग-अलग व्याख्याओं से परिचित हुए। 16वीं सदी के इटली के एक किसान
मेनोकियो ने अपने क्षेत्र में उपलब्ध पुस्तकों को पढ़ाना शुरू कर दिया था। उसने
उन पुस्तकों के आधार पर बाइबिल के नए अर्थ प्रस्तुत करने शुरू कर दिए और
उसने ईश्वर और सृष्टि के बारे में ऐसे विचार दिए कि रोमन कैथलिक चर्च क्रुद्ध
हो गया। ऐसे धर्म-विरोधी विचारों को दबाने के लिए चर्च ने जब धर्म-अदालत
प्रस्तावित की तो मेनोकियो दो बार पकड़ा गया और अंततः उसे प्राणदंड दिया
गया। धर्म के बारे में ऐसे पाठ और उस पर उठाए जा रहे प्रश्नों से तंग रोमन चर्च
के प्रकाशकों और पुस्तक विक्रेताओं पर कई तरह की पाबंदियाँ लगाई और 1558
से प्रतिबंधित पुस्तकों की सूची रखने लगा।

(घ) महात्मा गांधी ने ये शब्द 1922 में असहयोग आंदोलन (1920-22)
के काल में कहे थे क्योंकि उनके अनुसार वाणी की स्वतंत्रता, प्रेस की आजादी
और संगठन की आजादी के बिना कोई भी राष्ट्र नहीं पनप सकता । यदि देश को
बाहरी वर्चस्व से मुक्ति दिलानी है तो इन स्वतंत्रताओं को बहुत महत्त्वपूर्ण समझना
चाहिए। यदि ये तीनों आजादियाँ नहीं होंगी तो फिर राष्ट्रवाद भी नहीं होगा।
राष्ट्रवाद को अपने संजीवन के लिए ये तीनों स्वतंत्रताएँ अवश्य चाहिए । महात्मा
गांधी इस तथ्य को जानते थे, इसीलिए वे इन आजादियों की विशेषत: वकालत
करते थे। इनके अभाव में कोई राष्ट्रवाद के विषय में सोच भी नहीं सकता।

प्रश्न 13. छोटी टिप्पणी में इनके विषय में बताएँ―
(क) गुटेनबर्ग प्रेस 
(ख) छपी पुस्तक को लेकर इरैस्मस के विचार
(ग) देसी प्रेस अधिनियम ।
उत्तर―(क) देखिए प्रश्न-3 दीर्घउत्तरात्मक प्रश्न ।

(ख) इरैस्मस एक लातीनी विद्वान व कैथलिक सुधारक था जिसने अत्यधिक
कैथलिकवाद की तो आलोचना की परन्तु लूथर से भिन्न होकर मुद्रण के विषय
में गहरी चिंता व्यक्त की। उसने एडेजेज (1508) में लिखा था―"पुस्तकें
भिनभिनाती मक्खियों की तरह हैं, दुनिया का कौन-सा कोना है, जहाँ ये नही
पहुँच जातीं । संभव है कि जहाँ-तहाँ, एकाध जानने योग्य चीजें भी बताएँ, परन्तु
इनका अधिकांश तो विद्ववता के लिए हानिकारक ही है। इनसे बचना चाहिए,
................(मुद्रक) दुनिया को केवल क्षुद्र (जैसे कि मेरी लिखी) चीजों से ही
नहीं पाट रहे, बल्कि बकवास, बेबकूफ, सनसनीखेज, धर्मविरोधी, अज्ञानी और
षड्यंत्रकारी पुस्तकें छापते हैं, और उनकी संख्या इतनी है की मूल्यवान साहित्य
का कोई मूल्य नहीं रह जाता ।

        (ग) 1857 के विद्रोह के बाद प्रेस की स्वतंत्रता के प्रति दृष्टि बदल गई।
क्रुद्ध अंग्रेजों ने -देसी' प्रेस का मुंह बंद करने की माँग की । ज्यों-ज्यों भाषाई
समाचारपत्र राष्ट्रवाद के समर्थन में मुखर होते गए, औपनिवेशिक सरकार के कड़े
नियंत्रण के प्रस्ताव पर बहस तेज होने लगी। आइरिश प्रेस कानून के अनुकरण
पर 1878 में देसी प्रेस अधिनियम लागू किया गया। इससे सरकार की भाषाई प्रेस
में छपी रपट और संपादकीय को सेंसर करने का व्यापक अधिकार मिल गया ।
इसके बाद सरकार ने विभिन्न प्रदेशों से प्रकाशित हो रहे भाषाई अखबारां पर
नियमित नजर रखनी शुरू कर दी। अगर किसी रपट को बागी करार दिया जाता
था तो अखबार को पहले चेतावनी दी जाती थी, और अगर चेतावनी की अनसुनी
हुई तो अखबार को जब्त किया जा सकता था और छपाई की मशीनरी छीनी जा
सकती थी।

प्रश्न 14.19वीं सदी में भारत में मुद्रण-संस्कृति के प्रसार का इनके
लिए क्या अर्थ था―
(क) महिलाएँ, (ख) निर्धन जनता (ग) सुधारक
उत्तर―(क) देखिए प्रश्न-14 दीर्घ उत्तरात्मक प्रश्न ।

(ख) देखिए प्रश्न-18 दीर्घ उत्तरात्मक प्रश्न ।

(ग) (i) सुधारक पत्र-पत्रिकाओं व पुस्तकों का प्रयोग समाज में फैली
कुरीतियों को चिह्नित करने के लिए करते थे। राजा राममोहन राय ने 'संवाद
कौमुदी' का प्रकाशन विधवाओं के दुखों को उभारने के लिए किया ।

(ii) 1860 के दशक से कैलाश बाशिनी देवी जैसी बंगला महिला लेखिकाओं
ने महिलाओं के अनुभवों पर लिखना शुरू किया कि कैसे वे घरों में कैदी और
निरक्षर बनाकर रखी जाती हैं, पूरे घर का बोझ उठाती हैं और जिनकी सेवा करती
हैं, उन्हीं की दुत्कार सहती है। 1880 के दशक में आज के महाराष्ट्र की ताराबाई
शिंदे और पंडिता रमाबाई ने सवर्ण नारियों की, विशेषत: विधवाओं की दयनीय
दशा के विषय में जोश और रोष से लिखा। तमिल लेखन में भी महिलाओं की
हीन स्थिति पर विचार दिए गए हैं।

(iii) ज्योतिबा फुले समाज सुधारक थे। उन्होंने निम्न जाति की शोचनीय
दशा के विषय में लिखा। अपनी पुस्तक 'गुलामगिरी' (1871) में उन्होंने
जाति-व्यवस्था के अन्यायों के बारे में लिखा ।
    20वीं सदी में बी. आर. अंबेडकर ने जाति व्यवस्था के विरोध में खुल कर
लिखा। उन्होंने छुआछूत के विरोध में भी लिखा ।
       ई.वी. रामास्वामी नायकर, जिन्हें पेरियार भी कहते हैं, ने मद्रास में फैली
जाति- ते-व्यवस्था के विषय में लिखा।

प्रश्न 15. अठारहवीं सदी के यूरोप में कुछ लोगों को ऐसा लगता था
कि मुद्रण संस्कृति से निरंकुशवाद का अंत और ज्ञानोदय होगा?
                                                              [JAC 2011 (A)]
उत्तर―(i) मुद्रण-संस्कृति के आगमन के बाद आम लोगों में वैज्ञानिकों तथा
दार्शनिकों के विचार अधिक महत्व रखने लगे। प्राचीन तथा मध्यकालीन वैज्ञानिकों
की पांडुलिपियों को संग्रहीत व प्रकाशित किया जाने लगा।

              (ii) मानचित्र तथा अन्य सटीक वैज्ञानिक चित्र व्यापक रूप में छापे गए।
जब आइजैक न्यूटन जैसे वैज्ञानिकों ने अपने आविष्कार प्रकाशित करने शुरू किए
तो उनके लिए विज्ञान-बोध के रंग में रंगा एक विशाल पाठक-वर्ग तैयार हो चुका
था। टॉमस पेन, वॉल्तेयर और ज्याँजाक रूसो जैसे दार्शनिकों की पुस्तकें भी भारी
मात्रा में छपने और पढ़ी जाने लगीं। स्पष्ट है कि विज्ञान तर्क और विवेकवाद के
उनके विचार लोकप्रिय साहित्य में भी जगह पाने लगा।

      (iii) 18वीं सदी के मध्य तक यह आम विश्वास बन चुका था कि पुस्तकों
द्वारा प्रगति व ज्ञानोदय संभव है। कइयों का मानना था कि पुस्तकें विश्व बदल
सकती हैं और निरंकुशवाद और आतंकी राजसत्ता से समाज को मुक्ति दिला ऐसा
युग लाएँगी, जब विवेक और बुद्धि का राजा होगा। 18वीं सदी के फ्रांसीसी
उपन्यासकार प्रगति का सर्वाधिक शक्तिशाली औजार है, इससे बन रही जनमत
को आँधी में निरंकुशवाद उजड़ जाएगा।"

       (iv) मुद्रण ने ज्ञानोदय-विचारकों के विचारों को लोकप्रिय बनाया जिन्होंने
गिरजाघर के अधिकारियों पर हमले किए और सरकार की तानाशाही शक्ति का
विरोध किया जैसे वॉल्तेयर और रूसो ।

         (v) मुद्रण ने संवाद तथा वाद-विवाद की एक नई संस्कृति को जन्म दिया
और लोगों को तर्कशील बनाते हुए विचारों और आस्थाओं पर प्रश्न-चिह्न लगाना
सिखाया।

प्रश्न 16. कुछ लोग पुस्तकों की सुलभता को लेकर चिंतित क्यों थे?
यूरोप और भारत से एक-एक उदाहरण देकर समझाइए।
                                                        [JAC 2012 (A), 2015 (A)]
उत्तर―मुद्रित पुस्तकों का सभी ने स्वागत नहीं किया और जिन्होंने किया भी,
उनके दिलों में भी एक डर था । कइयों की धारणा थी कि छपी पुस्तक के
व्यापक प्रसार और छपे शब्द की सुगमता से आम लोगों के दिमाग पर ऋणात्मक
प्रभाव पड़ेगा । उन्हें आशंका थी कि यदि मुद्रित और पढ़ी जाने वाली सामग्री पर
कोई नियंत्रण न होगा तो लोगों में विद्रोही और अधार्मिक विचार उपजने लगेंगे।
यदि ऐसा हुआ तो 'मूल्यवान' साहित्य की सत्ता ही नष्ट हो जाएगी। धर्मगुरुओं
और सम्राटों तथा कई लेखकों एवं कलाकारों द्वारा व्यक्त यह चिंता नवमुद्रित और
नव प्रसारित साहित्य की व्यापक आलोचना का आधार बनी।
           अब इसके प्रारंभिक आधुनिक यूरोप में जीवन के एक क्षेत्र में होने वाले
प्रभावों की चर्चा अर्थात् धर्म के प्रसंग का विवरण निम्नांकित है―
        धर्म-सुधारक मार्टिन लूथर ने रोमन कैथलिक चर्च की कुरीतियों की
आलोचना करते हुए अपनी 95 स्थापनाएँ लिखीं। इसकी एक मुद्रित प्रति
विटेलबर्ग के चर्च के द्वार पर टाँगी गई। इसमें उन्होंने चर्च को शास्वार्थ के लिए
चुनैती दी थी। शीघ्र ही उनके लेख बड़ी संख्या में छापे और पढ़े जाने लगे।
फलत : चर्च में विभाजन हो गया और प्रोटेस्टेंट धर्मसुधार की शुरुआत हुई।
    कई रूढ़िवादी हिन्दुओं का विचार था कि शिक्षित लड़की विधवा हो जाएगी
और मुस्लिमों की धारणा थी कि शिक्षित स्त्री उर्दू रोमांसों को पढ़कर भ्रष्ट हो
जाएगी । इस निषेध का उल्लंघन करन वाली कई महिलाओं के उदाहरण मिलते हैं।

प्रश्न 17. मुद्रण संस्कृति ने भारत में राष्ट्रवाद के विकास में क्या
सहायता की?                                       [JAC 2009 'A]
उत्तर―(i) 19वीं सदी के प्रारंभ में धार्मिक, सामाजिक तथा आर्थिक मुद्दों
पर गंभीर वाद-विवाद होने लगे थे। लोगों के औपनिवेशिक समाज के विषय में
विभिन्न मत थे। कुछ तो वर्तमान रीति-रिवाजों की आलोचना करते हुए उनमें
सुधार चाहते थे जबकि कुछ अन्य समाज सुधारकों के तर्कों के विरूद्ध थे। ये
सारे वाद-विवाद मुद्रण में और सार्वजनिक रूप में सामने आए । मुद्रित पुस्तिकाओं
और अखबारों ने न केवल नए विचारों का प्रचार-प्रसार किया बल्कि उन्होंने बहस
की प्रकृति भी तय कर दी। इन सब से राष्ट्रवाद के विकास में सहायता मिली।

            (ii) मुद्रण ने समुदाय के बीच केवल मत-मतांतर पैदा नहीं किए अपितु
इसने समुदायों को अंदर से और विभिन्न भागों को पूरे भारत से जोड़ने का काम
भी किया। समाचार पत्र एक स्थान से दूसरे स्थान तक समाचार पहुँचाते थे
जिससे अखिल भारतीय पहचान उभरती थी।

      (iii) कई पुस्तकालय भी मिल-मजदूरों तथा अन्य लोगों द्वारा स्थापित किए
गए ताकि वे स्वयं को शिक्षित कर सकें। इससे राष्ट्रवाद का संदेश प्रचारित करने
में सहायक मिली।

       (iv) दमनकारी कदमों के बावजूद राष्ट्रवादी अखबार भारत के कई भागों में
भारी संख्या में पल्लवित हुए। वे औपनिवेशिक शासन का विरोध करते हुए
राष्ट्रवादी गतिविधियों को प्रोत्साहित करते थे।

प्रश्न 18. मुद्रण के इतिहास पर चर्चा कीजिए।
उत्तर―(i) प्रारंभिक मुद्रण प्रौद्योगिकी : मुद्रण प्रौद्योगिकी सर्वप्रथम
चीन, जापान तथा कोरिया में विकसित हुई थी। यहाँ हाथ की छपाई होती थी।
594 ई० के बाद चीन में कागज को बुडब्लॉक के धरातल पर लगी स्याही से
रगड़कर छपाई होने लगी थी।

(ii) जापान में मुद्रण : चीन से आए बौद्ध मिशनरियों ने 768-70 ई० में
जापान में हस्त मुद्रण तकनीक को विकसित किया । 868 ई० में जापान की
प्राचीनतम बौद्ध पुस्तक 'डायमंड सूत्र' की छपाई 6 शीटों में की गई जिसमें पाठ
के साथ-साथ काठ पर खुदे चित्र हैं। चित्र प्रायः कपड़ों, ताश के पत्तों और
कागज के नोटों पर बनाए जाते थे।

(iii) यूरोप में मुद्रण : यूरोप में 11वीं सदी में चीनी कागज रेशम मार्ग से
पहुँचा था। कागज ने लिपिकों द्वारा सावधानीपूर्वक लिखी गई पांडुलिपियों के
उत्पादन को संभव बनाया। 1295 में मार्को पोला नामक महान खोजी यात्री कई
वर्ष चीन में खोज कर इटली लौटा तो वह अपने साथ चीन की बुडब्लॉक वाली
छपाई की तकनीक भी यूरोप ले आया। यह तकनीक यूरोप के कई अन्य भागों
में भी लोकप्रिय हो गई। अभिजात वर्ग के लोग अब भी महँगे चर्म पत्रों पर छपी
पुस्तकों के हस्तलिखित संस्करण पसंद करते थे। विद्यार्थियों तथा व्यापारियों में
सस्ती छपाई की प्रतियाँ लोकप्रिय थीं।

प्रश्न 19. उन घटकों की चर्चा करें जिनसे यूरोप में पढ़ने का एक
जुनून पैदा हो गया था।
उत्तर―(i) योहान गुटेन्बर्ग की प्रिंटिंग प्रेस : योहान गुटेन्बर्ग की प्रेस ने
मुद्रण में क्रांति ला दी थी। प्रिंटिंग प्रेस के आविष्कार से एक पुस्तक की छापाई
की लागत कम हो गई। अब आम आदमी भी पुस्तकें खरीद सकता था।

     (ii) साक्षरता दर में वृद्धि : 17वीं तथा 18वीं सदियों में यूरोप के अधिकांश
भागों में साक्षरता दर में तीव्र वृद्धि हुई। वर्चस्व रखने वाले गिरजाघरों ने
गाँवों में अपने स्कूल खोले। 18वीं सदी के अंत में यूरोप के कुछ भागों में
साक्षरता दर 60 से 80% हो गई थी।

          (iii) साहित्य के नए रूप : नए पाठकों को ध्यान में रखकर साहित्य के
नए रूप छापने प्रारंभ हो गए। ये पुस्तकें प्रायः पंचांग के अलावा लोक गाथाएँ
और लोकगीतों से संबद्ध होती थीं।

              (iv) पत्रिकाएँ : अगला चरण पत्रिकाओं के विकास का था। इनमें
सम-सामयिक घटनाओं के समाचार के साथ मनोरंजन सामग्री भी छपती थी।
पत्र-पत्रिकाओं में युद्ध और व्यापार से जुड़ी जानकारी के साथ दूर देशों के
समाचार भी होते थे।

प्रश्न 20. महिलाओं पर मुद्रण संस्कृति के प्रभाव पर चर्चा कीजिए।
उत्तर―(i) नारी-शिक्षा―लेखकों ने महिलाओं के जीवन व भावनाओं को
लेकर लिखना प्रारम्भ किया जिससे महिला पाठकों की संख्या बढ़ने लगी। वे
शिक्षा में रुचि लेने लगी और उनके लिए कई स्कूल व कॉलेज अलग से खोले
गए। कई पत्रिकाओं ने भी नारि-शिक्षा के महत्व की चर्चा करनी शुरू कर दी।

        (ii) महिला लेखिकाएँ-19वीं सदी के प्रारम्भ में पूर्वी बंगाल में रशसुंदरी
देवी, एक परंपरित परिवार की घरेलू विवाहिता, ने रसोईघर में छिपकर पढ़ना
सीखा बाद में उसने आत्मकथा 'अमर जीवन' (अर्थात मेरा जीवन) लिखी जो
1876 में छपी थी।
    1860 के दशक से कैलाशबाशिनी देवी जैसी कई बंगला महिला लेखिकाओं
ने महिलाओं के अनुभवों पर लिखना शुरू किया कि कैसे वे घरों में बंदी व
निरक्षर बनाकर रखी जाती हैं, घर भर के काम का बोझ ढोती हैं और जिनकी सेवा
करती हैं, उन्हीं द्वारा दुत्कारी जाती हैं।1880 में आज के महाराष्ट्र में ताराबाई
शिंदे और पंडिता रमाबाई ने सवर्ण नारियों विशेषतः विधवाओं की शोचनीय दशा
के विषय में जोश और रोषपूर्वक लिखा । तमिल लेखिकाओं ने भी नारी के निम्न
स्तरीय जीवन के विषय में विचार व्यक्त किया।

(iii) हिन्दी लेखन और महिलाएँ―उर्दू, तमिल, बंगला और मराठी मुद्रण
संस्कृति तो पहले ही आ चुकी थी परन्तु हिन्दी मुद्रण 1870 के दशक में
गंभीरतापूर्वक प्रारंभ हुआ। शीघ्र ही इसका एक बड़ा भाग नारी-शिक्षा के प्रति
समर्पित होने लगा।

              (iv) नयी पत्रिकाएँ―20वीं सदी के प्रारंभ में महिलाओं द्वारा लिखित
पत्रिकाएँ लोकप्रिय हुई जिनमें नारी-शिक्षा, विधवा-जीवन, विधवा पुनर्विवाह और
राष्ट्रीय आन्दोलन जैसे विषयों पर चर्चा होती थी। कुछ ने तो महिलाओं के लिए
फैशन का ज्ञान देना भी शुरू कर दिया।

              (v) महिलाओं के लिए उपदेश―राम चड्ढा ने औरतों को आज्ञाकारी
पलियाँ बनने का उपदेश देने के उद्देश्य से 'स्त्रीधर्म-विचार' पुस्तक लिखी। ऐसे
ही संदेश को लेकर खालसा पुस्तिका सभा ने सस्ती पुस्तिकाएँ छापी । इनमें से
अधिकतर 'अच्छी स्त्री के गुणों' पर वार्तालाप के रूप में थीं।

प्रश्न 21.19वीं सदी में भारत में गरीब जनता वर्ग पर मुद्रण संस्कृति
के प्रसार का क्या प्रभाव पड़ा?      [JAC 2013 (A); 2016 (A)]
उत्तर―(i) सार्वजनिक पुस्तकालय-19वीं सदी में मुद्रण निर्धन लोगों तक
पहुँचा । प्रकाशकों ने छोटी और सस्ती पुस्तकें छापनी शुरू कर दीं। इन पुस्तकों
को चौराहों पर बेचा जाता था। ईसाई मिशनरियों तथा संपन्न लोगों द्वारा
सार्वजनिक पुस्तकालय भी खोले गए ।

               (ii) वर्गभेद के मुद्दे को उछालना―19वीं सदी के अंत में कई लेखकों
ने वर्गभेद के मुद्दे पर लिखना शुरू किया ।
               (i) ज्योतिबा फूले एक समाज सुधारक थे। उन्होंने निम्न जाति की शोचनीय
दशा के बारे में लिखा । उन्होंने अपनी पुस्तक 'गुलामगिरी' (1871) में जाति-व्यवस्था
के अन्यायों के विषय में लिखा।

          (ii) 20वीं सदी में बी० आर० अंबेडकर ने भी जाति-व्यवस्था के विरूद्ध
डटकर लिखा । उन्होंने छुआछूत के विरोध में भी लिखा ।

(iii) ई० वी० रामास्वामी नायकर, जिन्हें पेरियार भी कहते हैं, ने मद्रास में
व्याप्त जाति व्यवस्था के विषय में लिखा।
    इन लखकों का लेखन पूरे भारत के लोगों द्वारा पढ़ा जाता था । स्थानीय विरोध
आन्दोलनों और संप्रदायों में भी प्राचीन धर्मग्रंथों की आलोचना करते हुए, नए और
न्यायपूर्ण समाज का भविष्य निर्मित करने के लिए पत्र-पत्रिकाएँ व गुटके छापे ।

प्रश्न 22. छपाई से विरोधी विचारों के प्रसार को किस तरह बल
मिलता था? संक्षेप में लिखिए।
उत्तर―(i) छापेखाने से विचारों के व्यापक प्रचार-प्रसार और बहस मुबहिसे
के द्वार खुले । स्थापित सत्ता के विचारों से असहमत होने वाले लोग भी अब अपने
विचारों को छापकर फैला सकते थे।

(ii) अगर छपे हुए और पढ़े जा रहे पर कोई नियंत्रण न होगा तो लोगों में
बागी और अधार्मिक विचार पनपने लगते हैं।

(iii) मार्टिन लूथर ने रोकन कैथलिक चर्च की कुरीतियों की आलोचना करते
हुए अपनी पिच्चानवे स्थापनाएँ लिखीं। चर्च को शास्त्रार्थ के लिए चुनौती दी गयी
थी। इसके फलस्वरूप चर्च में विभाजन हो गया।

(iv) छपे हुए लोकप्रिय साहित्य के बल पर कम शिक्षित लोग धर्म की
अलग-अलग व्याख्याओं से परिचित हुए। इटली के एक किसान मेनोकियो ने
ईश्वर और सृष्टि के बारे में ऐसे विचार बनाये कि रोमन कैथोलिक चर्च उससे
क्रुद्ध हो गया।

प्रश्न 23. यूरोप में मुद्रण संस्कृति का विकास कैसे हुआ?
उत्तर―चीन के साथ यूरोपीय देशों का व्यापार सदियों से चला आ रहा था ।
व्यापार के कारण ही दोनों तरफ से संपर्क स्थापित थे। 1295 ई० में जब
मार्कोपोलो नामक खोजी यात्री चीन में कई वर्षों तक खोज करने के बाद इटली
वापस लोटा तो उसके साथ चीन में प्रचलित वुडब्लॉक (काठ की तख्ती) वाली
छपाई तकनीक का ज्ञान भी था। इसे उपरांत इटली में भी तख्ती की छपाई से
किताबें निकलने लगीं और जल्द ही यह तकनीक बाकी यूरोप में भी फैल गयी।
किताबों की बढ़ती माँग के कारण वुडब्लॉक प्रिंटिंग (तख्ती की छपाई) उत्तरोत्तर
लोकप्रिय होती गयी। पंद्रहवीं सदी की शुरूआत तक यूरोप में बड़े पौने पर तख्ती
की छपाई का इस्तेमाल होने लगा था तथा इसके माध्यम से कपड़े, ताश के पत्ते
और छोटी-छोटी टिप्पणियों के साथ धार्मिक चित्र छापे जाने लगे थे।
        किताबों की बढ़ती माँग के कारण किताबें छापने के लिए इससे भी तेज और
सख्ती मुद्रण तकनीक की जरूरत थी। 1430 के दशक में गुटेनवर्ग ने एक नयी
मुद्रण तकनोक को विकसित किया, जो तख्ती की छपाई के मुकाबले काफी तेजी
से किताबों को छापती थी। गुटेनबर्ग ने जैतून प्रेस या प्रिंटिंग प्रेस का मॉडल तैयार
किया और साँचे का उपयोग अक्षरों की धातुई आकृतियों को गढ़ने के लिए किया ।
गुटेन्बर्ग ने 1448 ई० तक इस यंत्र को पूर्णरूपेण विकसित कर लिया था। उसने इस
तकनीक से पहल किताब बाइबिल छापी थी। तकरीबन 180 प्रतियाँ बनाने में उसे
तीन साल लगे, जो उस समय के हिसाब से काफी कम समय था। 1450 से
1550 तक यूरोप के ज्यादातर देशों में छापेखाने लग चुके थे। हाथ की छपाई की
जगह यांत्रिक मुद्रण के आने पर ही मुद्रण क्रांति संभव हुई।

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