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 संत-काव्य (ज्ञानमार्गी शाखा) : प्रवृत्तियाँ (विशेषताएँ)

     


           संत-काव्य (ज्ञानमार्गी शाखा) : प्रवृत्तियाँ (विशेषताएँ)

निर्गुण भक्ति-धारा के कवि-साधकों को 'संत-शब्द' से अभिहित किया जाता रहा है। 'संत' की
व्युत्पत्ति शांत से मानते हुए संतरूपी परम तत्व के ज्ञाता को संत कहा गया। परमात्मा की प्राप्ति हेतु जो अपने
तथा पराये के भेद को मिटाकर आत्मोन्नयन का पथ पकड़ते है, आज भी वे ही संत कहलाते हैं। अपने हित
के साथ जो लोकहित का भी चिंतन करता है, वही संत कहलाने का अधिकारी होता है। 'जात पाँत पूछे नहि
कोई, हरि को भजे सो हरि का होई' के स्वर मुखरित करनेवाले संत-कवि 'सर्व सम भावे' और 'सर्वे भवंतु
सुखिनः' को मानने वाले थे।
कबीर हिंदुओं को कहते थे–“पाहन पूजै हरि मिले, तो मैं पूजूं पहाड़" तो दूसरी ओर मुसलमानों से भी यह कहते थे―
                                काँकर पाथर जोरि कै मसजिद लई चुनाई।
                              ता चढ़ि मुल्ला बांग दै, क्या बहरा हुआ खुदाई।

संभवतः इसी खंडनात्मक प्रवृत्ति के कारण कबीर को सिकंदर लोदी की यातना भी सहनी पड़ी थी।
 कबीर कहते हैं―
                              प्रेम न बाड़ी ऊपजे प्रेम न हाट बिकाय
                        राजा परज जेहि रुचे सीस देइ ले जाय।" अथवा
                            "ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय" ।

 संत-काव्य में गुरु की महत्ता पर अत्यधिक बल दिया गया है। यहाँ गुरु को परमात्मा सदृश माना
गया है; बल्कि कई बार गुरु को ईश्वर से भी अधिक महत्त्वपूर्ण माना गया है। गुरु का महत्त्व वैसे सगुण भक्ति
में भी माना गया है। गुरु की महिमा का बखान करते हुए कबीर कहते हैं―
                                  गुरु गोविंद दोऊ खड़े काको लागूं पाय
                              बलिहारी गुरु आपनो जिन गोविंद दियो बताय।

सामाजिक समस्याओं के विषय में भी संत कवियों का दृष्टिकोण काफी उदार था। वर्ण-व्यवस्था
तथा जाति के कारण उत्पन्न सामाजिक भेद-भाव की भावना का संत कवियों ने अत्यंत तीव्रता से विरोध किया।
परंतु यह विरोध इस्लामी प्रभाव नहीं था। ये सोच में ही जाति-पाँति के विरोधी थे। इनकी एक ही जाति थी
'हरिजन'। वे कहते थे―
                           "जाति पाँति पूछे ना कोई।
                            हरि को भजे सो हरि का होई।

एक द्रष्टव्य है― 
                      'आई सकौं न तुज्झ पै, सकौं न तुज्झ बुलाइ ।
                           जियरा यों ही लेहुगे, विरह तपाइ, तपाइ ।।"

सच तो यह है कि संतों का रहस्यवाद शांकर अद्वैत से भी प्रभावित है। एक रूपक देखें―
                          "जल में कुंभ कुंभ में जल है, बाहर-भीतर पानी ।
                      फुटा कुंभ जल जलहि समाना, यह तथ कही गयानी।"

नारी के प्रति कबीर का मत द्रष्टव्य है―
                                        'नारी की झाई परत, अंधा होत भुजंग
                                   कबिरा तिनकी कौन गति, जिन नारी नित संग।"

परंतु कई बार इन्हीं संतों की वाणी में उलटी बात भी मिलती है। नारी को इतनी हेय और निकृष्ट कहे
जाने के बाद भी पतिव्रता नारी के लिये इन संत-कवियों के यहाँ स्थान सुरक्षित-सा है―
                          "पतिव्रता मैली भली, काली कुचित कुरूप ।
                              पतिव्रता के रूप पर बारौं कोटि सरूप॥"

निष्कर्ष रूप में कह सकते हैं कि संतों की वाणी में वैयक्तिक साधना के उपयुक्त ऊँचे-से-ऊँचे सिद्धांत
हैं, पर वैयक्तिकता के कारण ही वे लोक-बाह्य भी हैं। फिर भी संत-साहित्य अपनी विशिष्टताओं के कारण
हिंदी साहित्य के इतिहास में अत्यंत महत्त्वपूर्ण साहित्य के रूप में परिगणित भी है।

                                                    ★★★
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