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 कृष्ण-भक्ति शाखा की काव्य-प्रवृत्तियाँ



हिंदी की कृष्ण भक्ति-शाखा का साहित्य मूलतः वल्लभाचार्य द्वारा निर्दिष्ट पुष्टिमार्ग और राधावल्लभी
मत पर ही स्थित है। इस शाखा का पूरा काव्य-साहित्य ब्रह्म की सगुणता का प्रतिपादन करता है। ब्रह्म
को ये रस या परम आनंदमय रूप में देखते हैं। यही साक्षात कृष्ण भी हैं। वह सच्चिदानंद हैं। जीव और
जगत इसी के सत् हैं। यह मत शुद्धाद्वैत के नाम से प्रसिद्ध है। चैतन्य के अनुसार परम तत्त्व एक है।
उसकी शक्तियाँ अचिन्त्य हैं। वह सगुण और रसमय कृष्ण ही हैं। उसका धाम गोलोक है। राधावल्लभी
मत में पार्थिव वृन्दावनधाम ही नित्यधाम है। राधा, कृष्ण और सहचरी सभी अभिन्न हैं।
कृष्ण-भक्ति-साहित्य में सिद्धांततः माया अस्वीकृत है। वल्लभ मत में माया विद्या ओर अविद्या दो
रूपों में मान्य है। माया ईश्वर की ही शक्ति है। कृष्णभक्ति का आधार ग्रंथ है श्रीमद्भागवत । सभी
कृष्ण-भक्त राधा और कृष्ण को इष्टदेव मानते हैं। राधा की महत्ता राधावल्लभी संप्रदाय में सर्वाधिक है।
यहाँ राधा, कृष्ण की आराधिका नहीं, आराध्या है।
कृष्णभक्ति-साहित्य में प्रेम का महत्त्व अत्यधिक है। प्रेम ही भक्ति का मूलाधार है। कृष्ण-भक्ति
में दैन्य का स्थान अत्यल्प है। स्वभावभेदानुसार प्रेम, वात्सल्य, सख्य और माधुर्य में ही व्याप्त है। प्रेम
का चरम रूप है माधुर्य-भक्ति । कृष्ण-भक्तों ने कर्म कांडों और बाह्यचारों की उपेक्षा कर प्रेम पर ही
अधिक जोर दिया है। वस्तुतः इस शाखा के कवियों का उद्देश्य था "रस, आनंद और प्रेम की मूर्ति कृष्ण
और राधाकृष्ण की लीला का गान ।" संपूर्ण कृष्ण-भक्ति-शाखा के कवियों द्वारा विरचित काव्यों के
पर्यालोचन से कई प्रकार की सामान्य प्रवृत्तियाँ लक्षित होती हैं। इन सभी प्रवृत्तियों को यदि रेखांकित करना
चाहें तो उन्हें हम इस प्रकार रेखांकित कर सकते हैं
(i) लीला-वर्णन― कृष्ण-भक्ति-काव्य में कृष्ण की लीलाओं का गायन मुख्य विषय है। सूरदास
के प्रणय-लीला-वर्णन में निश्चित विवेक, सूक्ष्म अध्यात्म, मानसिक वीतरागत्व, और स्वस्थ संयम है।
कृष्ण-काव्य के परवर्ती कवियों में धीरे-धीरे इसका अभाव होने लगा। उनमें स्थूलता और लौकिकता
क्रमशः आने लगी। इसका परिणाम यह हुआ कि कृष्ण-काव्य में चतुर्दिक प्रसरित उज्ज्वल आभा शनै-शनैः
कालिमा में परिवर्तित होने लगी। धीरे-धीरे आध्यात्मिकता नेशृंगारिकता का जामा धारण कर लिया।

(ii) मौलिक उद्भावना― कृष्ण-भक्ति साहित्य का विस्तार संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश में भी है।
इन सबका उपजीव्य श्रीमद्भागत ही रहा है। हिंदी के इन कवियों ने उन्हीं को मौलिक ढंग से वर्णित करने
की भरसक चेष्टा की है। जाहिर है इसी कारण वे पिष्टपेषण जैसे नहीं प्रतीत होते । जहाँ तक सूरदास
की बात है तो वह सदा से ही अपनी मौलिक उद्भावना के लिये प्रसिद्ध रहे हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल
ने स्पष्ट लिखा है-"सूर की बड़ी भारी विशेषता है नवीन प्रसंगों की उद्भावना । प्रसंगोद्भावना करने वाली
ऐसी प्रतिभा तुलसी में नहीं है।" हिंदी के इन कवियों ने जयदेव तथा विद्यापति का आधार ग्रहण करते
हुए यथेष्ट कल्पना से भी काम लिया है। सच पूछा जाय तो ये मौलिक उद्भावनाएँ ही कृष्ण भक्ति-काव्य
के प्राण हैं।

(iii) रस-चित्रण―कृष्ण-भक्ति शाखा के सारे काव्य-साहित्य में रस-चित्रण की दृष्टि से एक ही
'रस' है-'ब्रज रस' या भक्ति-रस । इसे 'अंगीरस' कहा जा सकता है। इस रस का स्थायी भाव है
भगवत प्रेम । इस रस की काव्यशास्त्रीय व्याख्या 'उज्ज्वल नीलमणि' और 'भक्ति रसामृत सिंधु' में हुई है।
शास्त्रीय शब्दावली में इसे वात्सल्य, शांत और शृंगार भी कह सकते हैं। वात्सल्य रस के संदर्भ में तो
सूरदास अद्वितीय हैं। सख्य भाव के निरूपण में भी उनका कोई जोड़ नहीं है। संपूर्ण कृष्ण-भक्ति-शाखा
के काव्य में यदि आप 'निर्वेद' को ढूँढना चाहें तो संभवत: आपके हाथ कुछ नहीं लगेगा। हाँ, वीर,
अद्भुत आदि अन्य रसों की योजना निश्चय ही प्रसंग वशात आपको मिल जायगी।

(iv) भक्ति-भावना― जाहिर है संपूर्ण कृष्ण-भक्ति-शाखा के काव्य में मूलतः कृष्ण-भक्ति ही है।'
'भगवत् रति' ही स्वभावानुसार वात्सल्य, सख्य, कांता इत्यादि रसों में परिणत हुई है। यहाँ वैधी भक्ति से
भिन्न प्रेमलक्षणा भक्ति ही मिलती है। रागानुगाभक्ति कांता भाव में निहित है। निम्बार्क मतवादियों ने
स्वकीया और चैतन्य मतवादियों ने परकीया भाव पर अधिक जोर दिया है। राधावल्लभी मत ने परकीया
भाव को अस्वीकृत किया है। कहीं-कहीं दास्यभाव तथा नवधाभक्ति के अन्य अंगों का भी पोषण हुआ
लगता है।

(v) पात्र और जीवन-चित्रण― जैसे राम-काव्य में राम का संपूर्ण जीवन चित्रित है यहाँ वैसी बात
नहीं है। इस संदर्भ में सूर के काव्य पर विचार करते हुए आचार्य शुक्ल ने जो दृष्टि-निक्षेप किया है उससे
हमें बहुत कुछ का पता चलता है। वह कहते हैं-"यद्यपि तुलसी के समान सूरदास का काव्य-क्षेत्र उतना
व्यापक नहीं कि उसमें जीवन की भिन्न दशाओं का समावेश हो पर जिस परिमित पुण्यभूमि में उनकी वाणी
ने संचरण किया, उसका कोई कोना अछूता न छूटा। शृंगार और वात्सल्य के क्षेत्र में इनकी दृष्टि जहाँ
तक पहुँची वहाँ तक और किसी कवि की नहीं।" इन कवियों ने कृष्ण के बाल गोपाल और छलिया रूप
को ही काव्य में चित्रित किया है। कृष्ण के बाद दूसरा चित्र है राधा का। जिस प्रकार उपदेशक,
नीतिकुशल और योद्धा कृष्ण के चित्रों का यहाँ अभाव है उसी प्रकार राधा के वैयक्तिक और प्रेम-पक्ष के
चित्र मात्र ही यहाँ उभरे हैं, सामाजिक और लोकपक्षीय चित्र का यहाँ नितांत अभाव-सा है। सूर की राधा
अपेक्षाकृत कोमल, भोली ओर स्वकीया है। वह कृष्ण के साथ विविध लीलाएँ तो करती है पर वह आज
की युवती-सी 'रोमाटिक' नायिका की तरह नहीं। कृष्ण और राधा के साथ इनके माता-पिता, सखी-सखा
तथा निकट के लोगों के ही चित्र मिलते हैं। कृष्ण-मित्रों में उद्धव का चित्र अधिक मार्मिक बन पड़ा है।
उद्धव के माध्यम से बुद्धि और तर्क पर भाव की, मस्तिष्क पर हृदय की, ज्ञान पर भक्ति की ओर निर्गुण
पर सगुण की विजय दिखाई गयी है।

(vi) पात्रों की प्रतीकात्मकता-लगभग संपूर्ण कृष्ण-काव्य की विशेषता है कवियों द्वारा पात्र के
चित्रण में प्रतीकात्मकता का सहारा लेना। राधा मधुरा भक्ति की मूर्ति सरीखी है। वह कृष्ण से अभिन्न
उन्हीं की आह्लादिनी शक्ति है। गोपियाँ भी कृष्ण से अभिन्न नहीं हैं। श्रीकृष्ण पूर्ण ब्रह्म हैं, गोपियाँ
जीवात्मा । वृन्दावन लीलाधाम है। चीरहरण माया के आवरण के विनाश की मानिंद है। इस प्रकार समस्त
लीलाएँ ही नहीं, समस्त कृष्ण-काव्य ही प्रतीकात्मक है।

(vii) सगुणत्व की मंडनात्मकता― उद्धव के दूत-कर्म द्वारा इन कवियों ने सदा ही ब्रह्म के सगुण
रूप की पुष्टि का प्रयत्न किया है। यहाँ निर्गुण का खंडन और सगुण का मंडन सर्वत्र एक समान पद्धति
पर मिलता है। भ्रमरगीत-प्रसंग को अवतारणा के पीछे यही भावना काम करती है।

(viii) रीति की प्रवृत्ति― कृष्ण-भक्ति-काव्य में रीतिपरकता की भी प्रवृत्ति प्रमुख रूप से रही है।
सूर के 'साहित्य लहरी' और 'रस मंजरी' जैसे ग्रंथों के प्रणयन इसी समय होते हैं। इन ग्रंथों में रीति की
प्रवृत्नि की नींव पड़ जाती है। साथ ही, कृष्ण-भक्ति की मधुरा रति से भी इसे प्रोत्साहन मिलता है; जिससे
ही आगे शृंगार-काल की अट्टालिका हिंदी में खड़ी होती है।

(ix) प्रकृति-चित्रण―संपूर्ण कृष्ण-काव्य भावात्मक होने के कारण उद्दीपक प्रकृति के चित्रणों से
भरा पड़ा है। प्रकृति का स्वतंत्र चित्रण नहीं के बराबर ही हुआ है। चित्रांकन-कौशल कवियों में अधिक
हा अवश्य है। डॉ० व्रजेश्वर वर्मा के अनुसार "दृश्यमान जगत का कोई भी सौंदर्य उनकी आँखों से छूट
न सका । पृथ्वी, अंतरिक्ष, आकाश, जलाशय, वन प्रांतर, यमुना-कूल और कुंज-भवन की संपूर्ण शोभा इन
कवियों ने प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में नि:शेष कर दी है।" इतना होते हुए भी प्रकृति के संवेदनात्मक चित्रों
का इनमें प्रायः अभाव ही है। ये अनुपात की दृष्टि से कम ही हैं।

(x) लोक दृष्टि― कृष्ण-भक्ति-काव्य लीलावादी है। लीला भी लीला के लिये है। इसका
लोक-मंगल से कोई सरोकार नहीं है; फिर भी उस काल की स्थिति के वर्णन यत्र-तत्र मिल जाते हैं।
तत्कालीन जीवन की उद्देश्यहीनता, ऐन्द्रिकता आदि की आलोचना भी यदा-कदा मिल जाती है। कलियुग-वर्णन
में सामाजिक चित्र कुछ अधिक उभर कर सामने आए हैं। यह काव्य वैयक्तिक होकर भी लोकमंगल की
भावना से पूर्णतः रहित नहीं है। इतना तो कहा ही जा सकता है कि जिस युग में मुस्लिम-दमन से आक्रांत
हो लोग हताश होकर जीवन से निराश हो रहे थे, वैसे समय में कृष्ण-भक्ति-काव्य ने जीवन में रससिक्तता
प्रदान कर सर्वत्र सरसता उत्पन्न करने की भरसक कोशिश की है।

(xi) काव्य-रूप― काव्य रूप की दृष्टि से संपूर्ण कृष्ण-काव्य प्राय: मुक्तक में है। मुक्तक के
संबंध में आचार्य शुक्ल की मान्यता है कि यह एक तरह का गुलदस्ता है। तात्पर्य यह कि इसमें सौंदर्य
का कसाव अधिक होता है। मुक्तक के क्षेत्र में कृष्णभक्त-कवियों ने विलक्षण कमाल दिखाया है। कृष्ण
की संपूर्ण कथा, संपूर्ण रूप से ब्रजविलास 'सागर' में ही संभव हो सकता है। इस काव्य में थोड़ा-बहुत
गद्य भी प्रयुक्त हुआ है। 'चौरासी वैष्णवन् की वार्ता' दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता' आदि इसके प्रमाण
हैं। इनके अलावा अनन्य अली (स्वप्न-प्रसंग), ध्रुवदास (सिद्धांत विचार), प्रियादास (राधा नेह) इत्यादि
की रचनाओं में गद्य मिलता है।

(xii) शैली― शैली की दृष्टि से संपूर्ण कृष्ण-काव्य गीतात्मक है। इनमें गीति शैली के सभी अपेक्षित
तत्व-भावात्मकता, संगीतात्मकता, वैयक्तिकता, संक्षिप्तता, भाषिक सुनम्यता आदि तत्व प्रचुरता से प्राप्त होते
हैं। गीतिशैली के सुंदर निर्वाह के कारण ही आचार्य शुक्ल को कहना पड़ा था कि "सूरसागर किसी चली
आती हुई गीति काव्य-परंपरा का चाहे वह मौखिक रहा हो, पूर्ण विकास प्रतीत होता है।"

(xiii) छंद― भावात्मक काव्य होने के कारण इनमें ज्यादातर गेय पद ही। प्रयुक्त हुए हैं। ऐसे
काव्यों में गेय छंद अपेक्षित भी होते हैं। कथात्मक प्रसंगों में चौपाई दोहा-रोला और रोला-दोहा के मिश्रित
रूप भी मिलते हैं। अधिकतर कवित्त, सवैया, छप्पाय, कुंडलिया, गीतिका, हरिगीतिका, अरिल्ल इत्यादि छंद ही
व्यवहृत हुए हैं।

(xiv) भाषा― समस्त कृष्ण काव्य की भाषा ब्रजी है। सूरदास ओर नंददास के हाथों में पड़कर यह
ब्रजभाषा सचमुच खिल उठी है। आधुनिक काल में लिखे जाने वाले कृष्ण काव्य खड़ी बोली में हैं।

लेकिन वास्तविक कृष्ण-काव्य का जो दौर भक्ति कालीन कृष्ण-काव्य-धारा में चला, उसकी भाषा
अनिवार्यतः ब्रजभाषा ही है। इस काल के कवियों में भाषिक प्रयोग की दृष्टि से सूरदास और नंददास के
काव्य अन्यतम हैं। इन दोनों में भी नंददास की भाषा अधिक मंजी हुई और परिष्कृत है। संभवतः नंददास
के विषय में इस टिप्पणी कि और कवि गढिया नंद दास जड़िया' कहने के मूल में उनकी भाषिक उत्तमता
भी ध्यान में रही हो।
 कुछ अन्य विशेषताओं में इस काव्य-धारा के प्रत्येक कवि का पुष्टिमार्गीय सिद्धांत के आलोक में
ब्रजभूमि, यमुना, मुरली, गावंश के प्रति अपना भक्ति, भाव प्रदर्शित करना भी है। इसके अलावा कृष्ण की
बाल, किशोर और युवा-काल की मधुर लीलाएँ भी प्राय: सभी कवि अपने विषय में शामिल करते हैं।
कहा जा सकता है कि मानव की रागात्मकता को परितोष देने में इन कृष्ण-भक्त कवियों का योगदान
सराहनीय रहा है।
    कृष्ण-भक्ति काव्य में मूलत: उपर्युक्त प्रवृत्तियाँ ही मिलती हैं। वस्तुतः कृष्ण-काव्य आनंद और
उल्लास का काव्य है। कला की दृष्टि से भी यह काव्य प्रायः अनुपमेय है। आचार्य द्विवेदी के अनुसार
"यह काव्य मनुष्य की रसिकता को उबुद्ध करता है; उसकी अंतर्निहित लालसा को ऊर्ध्वमुखी बनाता है
और उसे निरंतर रससिक्त बनाता रहता है।" अस्तु कृष्ण के विलक्षण व्यक्ति को अपना आलम्बन बनाने
वाला यह संपूर्ण कृष्ण-काव्य हिंदी का अनुपम खजाना है।

                                              ★★★
और नया पुराने

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