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 भक्ति की प्रमुख धारा-सगुण धारा



भारत भक्ति-प्रधान देश रहा है और यहाँ सदियों से भक्ति के दो रूप-निर्गुण और
सगुण प्रचलित रहे हैं। संवत 1375 से दक्षिण के भक्तों द्वारा जो भक्ति-आंदोलन उत्तर भारत में प्रारंभ हुआ उसके
विकास में निगुण भक्ति से अधिक सगुण भक्ति का महत्त्व माना जाता है। निर्गुण भक्ति के उपासक को
ही 'सत कहा गया था और सगुण भक्ति के उपासक को ही सही अर्थ में भक्त कहा गया।
          निराकार ब्रह्म जो सर्वव्याप्त तत्त्व और संपूर्ण सृष्टि का मूल कारण है, वह संसार में व्याप्त अनाचारों
और अत्याचारियों का नाश करने तथा सनातन सत्यादी की स्थापना के लिये अपनी मायाशक्ति से संसार
में साकार सगुण रूप से अवतार लेता है। इस प्रकार सगुण भक्ति में ब्रह्म मूर्त रूप में अवतार लेकर भक्तों
को त्राण दिलाता है।
         निर्गुण ब्रह्म के मूर्त रूप अवतार हैं। यह अवतावाद ही सगुण भक्ति-धारा का मूलाधार है।
अवतारवाद के मूल में जहाँ एक ओर लोकरक्षण या लोकमंगल की भावना कार्य कर रही थी वहीं दूसरी
ओर भक्तों को आनंदमय करने के लिये लोकरंजन की भावना भी कम कर रही थी। ये दोनों भावनाएँ
ही जीवन के सत्यं शिवं और सुन्दरम् की रक्षा करने में सक्षम हैं। यही कारण है कि सगुण भक्ति-धारा
के कवियों ने माधुर्य भाव को मुख्यता दी है, साथ ही आराध्य का शक्ति के अजस्र स्रोत और भंडार के
रूप में वर्णन किया।
   वास्तव में भारतवर्ष में ईश्वर-प्राप्ति या सद्गति के ज्ञान-भक्ति और कर्म-ये तीन मार्ग माने गये हैं।
ये तीन मार्ग आदिकाल से ही चले आ रहे हैं। भक्ति-मार्ग मानव-प्रकृति के अनुकूल होने के कारण
लोकप्रिय रहा है। प्राचीन काल में यह 'भागवत धर्म' के नाम से प्रख्यात था। इसी को महाभारत में 'पाँच
रात्र धर्म' और 'सात्वत धर्म' भी कहा गया है। इस मत के अनुसार ब्रह्म अद्वैत, अनादि, अनंत, निर्विकार,
निरवद्य, अंतर्यामी, सर्वव्यापक, असीम, आनंदस्वरूप है। वह प्राकृतगुण-सत्त्व, रज और तम से हीन हैं;
आकार, देश और काल से रहित पूर्ण, नित्य और व्यापक है। परंतु उसमें अप्राकृत गुण माने गये हैं।
षड्गुण युक्त होने के कारण वही परब्रह्म 'भगवान' कहलाया। सब द्वंद्वों से विनिर्मुक्त, सब उपाधियों से
विवर्जित, सब कारणों का कारण षड्गुण रूप परब्रह्म निर्गुण और सगुण दोनों है। अप्राकृत गुणों से हीन
होने के कारण वह निर्गुण है तथा षड्गुण युक्त होने के कारण सगुण है : छह गुण हैं : ज्ञान, शक्ति,
ऐश्वर्य, बल, वीर्य तथा तेज । 'ज्ञान' अजड़, स्वप्रकाश, नित्य और सर्वस्व का अवगाहन करने वाला गुण
है। 'शक्ति' जगत का उपादान कारक है। 'ऐश्वर्य' जगत के कर्तृत्व में स्वतंत्रता के गुण का नाम है।
जगत के निर्माण में श्रम के अभाव को ही 'बल' कहते हैं। जगत का उपादन कारण होने पर भी विकार
रहित होने का गुण ही वीर्य है। जगत् की सृष्टि में किसी सहकारी की आवश्यकता ही 'तेज' है।
   जगत् के कल्याण के लिये भगवान अपने-आप ही व्यूह, विभव, अर्चावतार तथा अंतर्यामी-चार
रूपों की सृष्टि करते हैं। व्यूह चार हैं-वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युन्न और अनिरुद्ध । षड्गुणयुक्त भगवान ही
समस्त भूतवासी होने के कारण वासुदेव कहलाये। परंतु, शेष तीन व्यूहों में दो-दो गुणों की विद्यमानता
होती है। विभव का अवतार-जो मुख्य और गौण, दो प्रकार के होते हैं। अर्थावतार भगवान की प्रस्तरीय
मूर्तियाँ हैं, जो अवतार के रूप में पूजा के उपयोग में आती हैं। सब प्राणियों के हृदयों में निवास करनेवाले
भगवान 'अंतर्यामी' कहे जाते हैं।
  शंकराचार्य ने इसे अवैदिक बताया था परंतु रामानुजाचार्य ने उसे वेदविहित सिद्ध कर बादरायण के
ब्रह्मसूत्रों की व्याख्या कर उसे प्रामाणिक बताया। इसी मत के आधार पर मध्ययुग में वैष्णव भक्ति का
प्रचार और भगवान के विभवातारों की लीलाओं का वर्णन-कीर्तन किया गया है। भक्ति के अनेक संप्रदायों
में सगुण संप्रदाय, जिसमें भगवान के सगुण रूप पर ही बल दिया गया क्योंकि वही पूजा, उपासना,
आराधना और ध्यान का सहज विषय हो सकता था, पर बल दिया गया ।
   सगुणोपासना को ही शुद्ध भारतीय भक्ति-पद्धति घोषित किया गया। सगुणोपासना सुगम तथा
निर्गुणोपासना पासन कठिन बतायी गयी है। गीता में भगवान कृष्ण ने स्वयं अव्यकतासक्त चित्तवालों की
साधना को अधिक क्लेशकर बताया है तथा आत्मसमर्पण युक्त सगुण भक्तों की प्रेममयी साधना को
संसार-सागर से शीघ्र ही तारने वाला कहा है। भक्ति कालीन सगुणो पासक कवियों ने भी निर्गुण की
अस्वीकृति नहीं की, प्रत्युत भक्ति-साधना के लिये उसकी अव्यावहारिकता प्रमाणित की। ठीक गीता की
तरह ही सूरदास ने 'सूरसागर' के प्रारंभ में ही अव्यक्त की गति को अनिर्वचनीय कह कर यह निश्चय
प्रकट किया है कि रूप-रेखा-गुण-जाति-युक्ति से रहित अव्यक्त का स्वाद गूंगे के गुड़ के समान है; अतः
मैं सगुण-लीला के पद गा रहा हूँ। तुलसीदास ने निर्गुण और सगुण में बराबर अभेद का सिद्धांत स्वीकार
किया है, परंतु उन्हें अंतर्यायी राम की अपेक्षा बहिर्गामी राम ही अधिक अच्छे लगते हैं, क्योंकि उन्हीं की
कृपा का वे प्रत्यक्ष अनुभव कर सकते हैं। सगुण रूप सुगम है क्योंकि वह इंद्रियों द्वारा जाना जा सकता
है। परंतु विचार करने पर सगुण रूप को समझने में और कठिनाई होती है। राम को सीता के वियोग में
विलाप करते देख सती को आश्चर्य हुआ और उन्होंने अपने पति शिव से शंका व्यक्त की कि ये कैसे
परब्रह्म परमात्मा हैं जो अज्ञ की तरह रुदन करते हैं। सती का मोह दूर करने के लिये शिवजी को बहुत
बड़ा त्याग करना पड़ा। उस जन्म में उनका भ्रम दूर न हो सका। इसीलिये तुलसीदास ने कहा कि निर्गुण
रूप सुगम है, सगुण ही दुर्गम है। किस प्रकार अनादि, अनंत, निराकार ब्रह्म देश-काल की सीमा में शरीर
धारण कर नर-चरित्र कर सकते हैं, इस प्रश्न का समाधान अत्यंत कठिन है। केवल भक्तगण ही इसे समझ
सकते हैं।
      निर्गुण ब्रह्म में सगुणता का आरोप स्पष्टतः अंतर्विरोधपूर्ण है। वल्ल्भाचार्य ने ब्रह्म का विरुद्ध
धर्माश्रयत्व' कहकर इसका समाधान किया है। सच तो यह है कि भक्त जब ब्रह्म को भगवान के रूप
में कल्पित करता है तभी, चाहे वह उसे विभवावतार या धर्मावतार के रूप में न भी माने, उसमें उसे
किसी-न-किसी मात्रा में सगुणता का आरोप करना ही पड़ता है; उसे वह करुणामय, दीनबंधु, रक्षक, न्यायी
कहकर श्रेष्ठ गुणों से ही विभूषित करता है। सूक्ष्मता से देखने पर यह भी स्वीकार करना पड़ेगा कि ब्रह्म
के अवतार या उसको अन्यथा साकारता का प्रत्याख्यान करनेवाले निर्गुणोपासक उसमें नाम के साथ रूप का
भी किसी-न-किसी अंश में आरोप कर ही लेते हैं। प्रायः रूप का यह आरोप रूपक और प्रतीकों के रूप
होता है; परंतु इंद्रियगम्य बनाने के लिये इतनी सगुणता दुर्निवार है। इस प्रकार भक्तिमात्र सगुणतामूलक
है। अंतर केवल अवतार और मूर्तिपूजा के सम्बन्ध में होता है। जो निर्गुणवादी हैं ये भगवान के अवतार
विशेष रूप में पुराणों में वर्णित अवतारों तथा उनके विग्रहों की पूजा का खंडन करते हैं और सगुणवादी
किसी अवतार विशेष; विग्रहविशेष के प्रति अनन्यभाव की भक्ति आवश्यक मानते हैं।
    मध्ययुग में राम और कृष्ण, दो अवतारों के आधार पर सगुण भक्ति का विशिष्ट संप्रदाय-सगुण
संप्रदाय संघटित हुआ । रामभक्ति का संघटित प्रचार रामानंद के श्री वैष्णव संप्रदाय द्वारा किया गया। कहा
जाता है कि तुलसीदास इसी के अनुयायी थे, परंतु तुलसीदास में सांप्रदायिक आग्रह नहीं पाया जाता है।
कृष्ण-भक्ति के संप्रदायों में नियमों और आचारों की कठोरता अधिक है। मध्ययुग में निबार्क और मध्व
के सनकादि एवं ब्रह्म नामक प्राचीन संप्रदायों के अतिरिक्त पुष्टिमार्ग या वल्लभ संप्रदाय, राधावल्लभ
संप्रदाय, सखी संप्रदाय और गौडीय वैष्णव संप्रदाय अधिक प्रभावशाली थे। इन्हीं संप्रदायों ने कृष्ण या
राधाकृष्ण को इष्टदेव मानकर उनकी लीलाओं का ज्ञान करते हुए सगुण-भक्ति का प्रचार किया।
  सगुण भक्तों की सर्वाधिक उल्लेखनीय प्रवृत्ति है उनकी भक्ति भावना । यही कारण है कि सगुण
भक्त कवियों के काव्य में इनके पूर्व प्रचलित भक्ति के अनेक प्रकार समाहित हैं। तुलसीदास ने
श्रवण-कीर्तन आदि नवधा भक्ति को अने ग्रंथों में स्थान दिया है। भक्ति की स्वतः भूमिकाएँ मानी जाती
हैं–दीनता, मानमर्षता, भर्त्सना, भय-दर्शन, आश्वासन, मनोराज और विचारण। ये सब काव्य में वर्णित हैं।
इसके अतिरिक्त नारद द्वारा अभिव्यक्त भक्ति की ग्यारह आसक्तियों को भी तुलसी ने अपनी सगुणोपासना
में स्वीकार कर उनका वर्णन किया है। ये ग्यारह आसक्तियाँ गुण माहात्म्यासक्ति, रूपासक्ति और पूजासक्ति
आदि हैं। भगवान की ओर उन्मुख तुलसी के मन ने भगवान की बड़ाई और अपनी छुटाई का वर्णन बड़े
मार्मिक शब्दों में किया है।

                                     "राम सों बड़ो है कौन मोसों कौन छोटो
                                       राम सों खरो है कौन मोसों को खोटो।"

कृष्णभक्ति–शाखा के कवियों की भक्ति पुष्टिमार्ग पर आधारित है। यह पुष्टि कृष्णानुग्रहरूपा पुष्टि
अर्थात् कृष्ण की कृपा ही पुष्टि है। इन्होंने अपने भक्ति-भावों को भगवान की ओर भगवान के चरणों
में निवेदित किया है। यहाँ सेवा-भाव का प्राधान्य है। इस भक्ति का अत्यधिक प्रचार हुआ। रामानुजाचार्य
के विशिष्टाद्वैत का मूल यही सगुण भक्ति है। कृष्ण-भक्ति का आधार ग्रंथ 'श्रीमद्भागवत' है। तुलसी
के राम भी विष्णु के अवतार हैं जिनमें अनंत सौंदर्य के अतिरिक्त अनंत शील और अनंत शक्ति का
समावेश है।
    सगुण रूप में भगवान की जो कल्पना है उसे 'भागवत महापुराण' के अनुसार भगवान वैकुण्ठ आदि
धामों में तीन रूप से निवास करते हैं– स्वयं रूप, तदेकात्मरूप और आवेश रूप । श्रीकृष्ण भगवान के स्वयं
रूप हैं। श्री राम भी ऐसे ही हैं। तदेकात्म रूप में उन अवतारों की गणना होती है जो तत्त्वतः भगवद्रूप
होकर भी रूप और आकार में भिन्न होते हैं। इसके उदाहरण मत्स्य रूप, वराहरूप आदि के लीलावतार
हैं। ज्ञानशक्त्यादि विभाग द्वारा भगवान जिन महत्तम जीवों में अविष्ट होकर रहते हैं उन्हें आवेशरूप कहते
हैं। जैसे वैकुण्ठ में नारद, शेष, सनक, सनंदन आदि। इस तरह मनुष्य का शरीर धारण कर अवतरित होने
वाले भगवान संसार की पीड़ा दूर करने के लिये आते हैं साथ ही वह अपने भक्तों पर अनुग्रह करके ही
अवतार लेते हैं। भगवान के तीन प्रकार के अवतार हैं-पुरुषावतार, गुणावतार और लीलावतार । इनमें
पुरुषावतार भी तीन प्रकार के होते हैं-प्रथम पुरुष, द्वितीय पुरुष और तृतीय पुरुष । गुणावतार तो प्रसिद्ध
है ही। सत्त्वगुण से युक्त अवतार ब्रह्मा, रजोगुण से युक्त विष्णु और तमोगुण से युक्त रुद्र या शिव हैं।
लीलावतार चौबीस हैं-चतुःसन, नारद, वराह, मत्स्य, यज्ञ, नर-नारायण, कपिल दत्तात्रेय, हयशीर्ष
हंस, ध्रुवप्रिय, ऋषभ, पृथ, नृसिंह, कर्म, धन्वंतरि, मोहिनी, वामन, परशुराम, राघवेंद्र, व्यास, बलराम, बुद्ध
और कल्कि।
      इन अवतारों का मुख्य हेतु भक्तों के लिये लीला का विस्तार करन्दर ही है। यह लीला भी दो
प्रकार की होती है-प्रकर और अप्रकर ।
भगवान की माधुरी भी चार प्रकार की होती है-ऐश्वर्य माधुरी, क्रीड़ा-माधुरी, वेणु माधुरी और
विग्रह माधुरी।
इस प्रकार सगुण भक्त स्वर्ग-अपवर्ग कुछ नहीं चाहता। वह ऋद्धि-सिद्धि कुछ नहीं चाहता, केवल
अनंत काल तक अव्यभिचारिणी भक्ति की कामना करता है। इस सगुण रूप को स्मरण करके वह
ज्ञान-विज्ञान, धर्म-कर्म, सबको भुला देता है। भक्तिरूप चिंतामणि तब तक भक्त को प्राप्त नहीं होती जब
तक भगवान स्वयं कृपा न करें। भक्तिहीन ब्रह्मा भी उन्हें पसंद नहीं। सगुण भक्ति में दो प्रकार की भक्ति
होती हैं-रागानुगा भक्ति और वैधी भक्ति । स्वाभाविक रुचि से जो वृत्ति उत्तेजित होती है उसे राग कहते
हैं और कर्तव्य बुद्धि से जो नियम स्थिर किये जाते हैं उसे विधि कहते हैं। इस आधार पर इष्ट वस्तु के
प्रति स्वलाविक तन्मयता को 'राग' कहते हैं और राग जिसके प्रति धावित होता है वही इष्ट होता है।
इसी आधार पर रागानुगा भक्ति उपजती है। रागानुगा और वैधी भक्ति के साधक शरीर, मन, आत्मा,
प्रकृति और समाजगत अनुशीलनों के द्वारा भगवान का भजन करते हैं।

                                                ★★★
और नया पुराने

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