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   Jharkhand Board Class 9TH Hindi Notes | उपभोक्तावाद की संस्कृति ― श्यामाचरण दूबे  

   JAC Board Solution For Class 9TH Hindi Prose Chapter 3


1. धीरे-धीरे सब कुछ बदल रहा हैं एक नयी जीवन-शैली अपना वर्चस्व
स्थापित कर रही है। उसके साथ आ रहा है एक नया जीवन-दर्शन
उपभोक्तावाद का दर्शन। उत्पादन बढ़ाने पर जोर है चारों ओर। यह
उत्पादन आपके लिए है, आपके भोग के लिए है, आपके सुख के लिए
है। 'सुख' की व्याख्या बदल गई है। उपभोग-भोग ही सुख है। एक
सूक्ष्म बदलाव आया है नयी स्थिति में। उत्पाद तो आपके लिए हैं, पर
आप यह भूल जाते हैं कि जाने-अनजाने आज के माहौल में आपका
चरित्र भी बदल रहा है और आप उत्पाद को समर्पित होते जा रहे हैं।

(क) 'सुख' की व्याख्या में क्या बदलाव आया है?
उत्तर― पहले आत्मिक सुख-ही-सुख था किन्तु आज उपभोग भोग ही सुख है।

(ख) कौन-सा जीवन-दर्शन आ रहा है?
उत्तर― उपभोक्तावाद का नया जीवन-दर्शन आ रहा है। यह हमारी जीवन-शैली
पर अपना अधिकार जमाता चला जा रहा है। इसमें उत्पादन बढ़ाने पर जोर
है। सारे उत्पाद हमारे लिए बताए जा रहे हैं।

(ग) धीरे-धीरे क्या बदल रहा है?
उत्तर― धीरे-धीरे सारा माहौल बदल रहा है। अब एक नई संस्कृति उभर रही है।

2. अमरीका में आज जो हो रहा है, कल वह भारत में भी आ सकता है।
प्रतिष्ठा के अनेक रूप होते हैं। चाहे वे हास्यास्पद ही क्यों न हों। यह
है एक छोटी-सी झलक उपभोक्तावादी समाज की। यह विशिष्टजन
का समाज है पर सामान्यजन भी इसे ललचाई निगाहों से देखते हैं।
उनकी दृष्टि में, एक विज्ञापन की भाषा में, यही है राइट च्वाइस बेबी।

(क) प्रतिष्ठा के हास्यास्पद रूप से क्या तात्पर्य है?
उत्तर― अपने अंतिम संस्कार और अंतिम विश्राम-स्थल के लिए अच्छा प्रबंध
करना ऐसी झूठी प्रतिष्ठा है जिसे सुनकर हँसी आती है।

(ख) विशिष्ट जन का समाज किसे कहा गया है?
उत्तर― उपभोक्तावादी समाज के अंग वे हैं जिनके पास खूब धन है। वे विशिष्ट
जन हैं। अतः उपभोक्तावादी समाज विशिष्ट समाज कहलाता है।

(ग) विशिष्ट जन-समाज का सामान्य जन पर क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तर― विशिष्ट जन-समाज का सुख-वैभव देखकर सामान्य जन भी उसका
अनुकरण करने की सोचते हैं। वे भी उपभोक्तावादी संस्कृति की ओर बढ़ने
लगते हैं।

3. सामंती संस्कृति के तत्त्व भारत में पहले भी रहे हैं। उपभोक्तावाद इस
संस्कृति से जुड़ा रहा है। आज सामंत बदल गये हैं, सामंती संस्कृति
का मुहावरा बदल गया है। हम सांस्कृतिक अस्मिता की बात कितनी
ही करें; परंपराओं का अवमूल्यन हुआ है, आस्थाओं का क्षरण हुआ
है। कड़वा सच तो यह है कि हम बौद्धिक दासता स्वीकार कर रहे
हैं, पश्चिम के सांस्कृतिक उपनिवेश बन रहे हैं। हमारी नयी संस्कृति
अनुकरण की संस्कृति हैं । हम आधुनिकता के झूठे प्रतिमान अपनाते
जा रहे हैं। प्रतिष्ठा की अंधी प्रतिस्पर्धा में जो अपना है उसे खोकर
छद्म आधुनिकता की गिरफ्त में आते जा रहे हैं। संस्कृति की नियंत्रक
शक्तियों के क्षीण हो जाने के कारण हम दिग्भ्रमित हो रहे हैं। हमारा
समाज ही अन्य निर्देशित होता जा रहा है। विज्ञापन और प्रसार के सूक्ष्म
तंत्र हमारी मानसिकता बदल रहे हैं। उनमें सम्मोहन की शक्ति है,
वशीकरण की भी।

(क) उपभोक्तावाद किस संस्कृति से जुड़ा रहा है और क्यों?
उत्तर― उपभोक्तावाद सामंती संस्कृति से जुड़ा रहा है। यह ठीक है कि आज सामंत
बदल गए हैं, नए-नए सामंत पैदा हो रहे हैं। सामंती संस्कृति का मुहावरा
बदल गया है।

(ख) हमारी परंपराओं की क्या स्थिति है?
उत्तर― इस नई संस्कृति के विकास के कारण हमारी परंपराओं का अवमूल्यन हुआ
है, उनमें गिरावट आई है। हमारी आस्थाएँ भी बदल रही हैं। अब पहले जैसी
स्थिति नहीं है

(ग) कड़वा सच क्या है?
उत्तर― कड़वा सच यह है कि हम बौद्धिक गुलामी स्वीकार करते चले जा रहे
हैं। हम पश्चिम के उपनिवेश बनते जा रहे हैं। हम संस्कृति का
अंधा अनुकरण कर रहे हैं।

4. अंततः इस संस्कृति के फैलाव का परिणाम क्या होगा? यह गंभीर
चिंता का विषय है। हमारे सीमित संसाधनों का घोर अपव्यय हो रहा
हैं जीवन की गुणवत्ता आलू के चिप्स से नहीं सुधरती। न बहुविज्ञापित
शीतल पेयों से। भले ही वे अंतर्राष्ट्रीय हों। पीजा और वर्गर कितने ही
आधुनिक हों. हैं वे कूड़ा खाद्या समाज में वर्गों की दूरी बढ़ रही है,
सामाजिक सरोकारों में कमी आ रही हैं जीवन स्तर का यह बढ़ता अंतर
आक्रोश और अशांति को जन्म दे रहा है। जैसे-जैसे दिखावे की यह
संस्कृति फैलेगी, सामाजिक अशांति भी बढ़ेगी। हमारी सांस्कृतिक
अस्मिता का हास तो हो ही रहा है. हम लक्ष्य भ्रम में भी पीड़ित हैं।
विकास के विराट उद्देश्य पीछे हट रहे हैं, हम झूठी तुष्टि के
तात्कालिक लक्ष्यों का पीछा कर रहे हैं। मर्यादाएँ टूट रही हैं, नैतिक
मानदंड ढीले पड़ रहे हैं। व्यक्ति केंद्रकता बढ़ रही है, स्वार्थ परमार्थ
पर हावी हो रहा है। भोग की आकांक्षाएँ आसमान को छू रही हैं। किस
बुिदु पर रूकेगी यह दौड़

(क) यहाँ किस संस्कृति की बात हो रही है? यह चिंता का विषय क्यों है।
उत्तर― यहाँ उपभोक्तावादी संस्कृति की बात हो रही है। इस संस्कृति का फैलाव
गंभीर चिंता का विषय है, क्योंकि इससे हमारे सीमित संसाधनों का
अपव्यय हो रहा है।

(ख) इस गद्यांश में किन-किन पदार्थों को बेकार बताया गया है और क्यों
उत्तर― इस गद्यांश में आलू के चिप्स, शीतल पेयों, पीजा, बर्गर आदि को कूड़ा
खाद्य सामग्री कहा गया है। इनके खाने का कोई लाभ नहीं है, बल्कि ये
अस्वास्थ्यकर हैं।

(ग) इस संस्कृति से क्या नुकसान हो रहा है?
उत्तर― इस संस्कृति से यह नुकसान हो रहा है कि सामपाजिक सरोकार घट रहे
हैं, आक्रोश और अशांति बढ़ रही है. मर्यादाएँ टूट रही है, नैतिक
मानदंड दोले पड़ रहे हैं, परमार्थ पर स्वार्थ हावी होता चला जा रहा है।

                                   लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर 

1. लेखक के अनुसार जीवन में 'सुख' से क्या अभिप्राय है?
उत्तर― लेखक का कहना है कि उपभोक्तावाद के दर्शन ने आज सुख की परिभाषा
बदल दी है। आज के समय बढ़ते हुए उत्पादों का भोग करना ही सुख
कहलाता है। दूसरे शब्दों में जिन उत्पादों से हमारी इच्छा-पूर्ति होती है, उस
इच्छा-पूर्ति को सुख कहते हैं। लेखक का कहना है कि उत्पाद के प्रति
समर्पित होकर हम अपने चरित्र को भी बदल रहे हैं।

2. आज की उपभोक्तावादी संस्कृति हमारे दैनिक जीवन को किस प्रकार
प्रभावित कर रही है?
उत्तर― आज की उपभोक्तावादी संस्कृति सामान्य व्यक्ति के दैनिक जीवन को बुरी
तरह से प्रभावित कर रही है। आज हम विज्ञापन की चमक-दमक के
कारण वस्तुओं के पीछे भाग रके हैं। हम उसकी गुणवत्ता को नहीं देखते
हैं। संपन्न वर्ग की होड़ करते हुए सामान्य जन भी उसे पाने के लिए
लालायित दिखाई देता है। दिन-प्रतिदिन परंपराओं में गिरावट आ रही हैं,
आस्थाएँ समाप्त होती जा रही है। आधुनिकता के झूठे मानदंडों को अपना
रहे हैं। अंधी प्रतिस्पर्धा में अपनी वास्तविकता को खोकर दिखावेपन को
अपनाते जा रहे हैं। विज्ञापन के सम्मोहन में फंस कर हम उसके वश में
होते जा रहे हैं।

3. गाँधी जी ने उपभोक्ता संस्कृति को हमारे समाज के लिए चुनौती क्यों
कहा है?
उत्तर― गाँधी जी ने उपभोक्ता संस्कृति को हमारे समाज के लिए चुनौती इसलिए
कहा है क्योंकि दिखावे की संस्कृति के फैलने से सामाजिक अशांति और
विषमता बढ़ती जा रही है। हमें अपने समाज में स्वस्थ सांस्कृतिक प्रभाव
बनाए रखने होंगे। यदि ऐसा न किया गया तो हमारी सामाजिक नींव हिल
जाएगी। उपभोक्ता संस्कृति हमारे लिए एक बहुत बड़ा खतरा है।

4. गाँधी जी ने उपभोक्तावादी संस्कृति को देखकर क्या कहा था?
उत्तर― गाँधीजी ने कहा था कि हम स्वस्थ सांस्कृतिक प्रभावों के लिए अपने
दरवाजे-खिड़की खुले रखें, पर अपनी बुनियाद पर कायम रहें। उपभोक्ता
संस्कृति हमारी सामाजिक नींव को ही हिला रही हैं। यह एक बड़ा खतरा
है। भविष्य के लिए यह एक बड़ी चुनौती है।

5. फैशन के मामले में पुरुष भी पीछे नहीं है। कैसे ?
उत्तर― सामान्यत: फैशन का संबंध महिलाओं से जोड़ा जाता था, पर अब इस दौड़
में पुरुष भी पीछे नहीं है। पहले पुरुषों का काम साबुन और तेल से चल
जाता था पर अब उन्हें आफ्टर शेव लोशन, कोलोन तथा परफ्यूम आदि
सभी कुछ चाहिए। घड़ी भी अब समय वाली नहीं रह गई है, यह हैसियत
जताने वाली हो गई है।

6. टूथपेस्टों के बारे में क्या-क्या बताया जाता है?
उत्तर― कोई टूथपेस्ट दाँतों को मोती सा चमकीला बनाता है तो कोई मुँह की दुर्गंध
हटाने वाला बताया जाता है। किसी पेस्ट में मैजिक वाला फार्मूला तो कोई
ऋषि-मुनियों द्वारा स्वीकृत खनिज तत्वों के मिश्रण से बना हैं पेस्ट अच्छा
है तो खुश भी अच्छा होना चाहिए।

7. 'जाने-अनजाने आज के माहौल में आपका चरित्र भी बदल रहा है और
आप उत्पाद को समर्पित होते जा रहे हैं' आशय स्पष्ट करें।
उत्तर― उपर्युक्त कथन का आशय यह है कि आज हम वस्तु की गुणवत्ता को न
देखकर, विज्ञापन की चमक-दमक में फंस जाते हैं तथा संपन्न वर्ग की
देखा-देखी हम भी उन्हें पाने के लिए लालायित रहते हैं। परिणामस्वरूप
उस उत्पाद के प्रति समर्पित होकर हम आज के माहौल में ढलते जा रहे
है।

8. "प्रतिष्ठा के अनेक रूप होते हैं, चाहे वे हास्यास्पद ही क्यों न हो।"
आशय स्पष्ट करें।
उत्तर― कहने का आशय है कि संपन्न और प्रतिष्ठित व्यक्ति कोई भी काम कर
सकता है। वह उसके व्यक्तित्व को निखारने में मदद करता है लेकिन वही
काम किसी सामान्य व्यक्ति द्वारा किया जाता है तो वह हँसी का पात्र बन
जाता है।

9. कोई वस्तु हमारे लिए उपयोगी हो या न हो, लेकिन टी०वी० पर
विज्ञापन देखकर हम उसे खरीदने के लिए अवश्य लालायित होते हैं,
क्यों?
उत्तर― विज्ञापनों का रूप अत्यंत सम्मोहक होता है। हम इसके आकर्षण जाल में
उलझ ही जाते हैं। व्यक्ति अपनी आवश्यकता को देखकर नहीं, विज्ञापन
के वशीभूत होकर उस वस्तु को खरीदने के लिए बेचैन हो जाता है। उसे
लगता है कि इस चीज की उसे भी जरूरत है, भले ही वह चीज हमारे
लिए उपयोगी न हो। विज्ञापन का मोहजाल ऐसी ही चमत्कारी है।

10. आपके अनुसार वस्तुओं को खरीदने का आधार वस्तु की गुणवत्ता होना
चाहिए या उसका विज्ञापन? तर्क के साथ स्पष्ट करें।
उत्तर― हमारे अनुसार वस्तुओं को खरीदने का आधार वस्तु की गुणवत्ता होना
चाहिए. न कि उसका विज्ञापन।
प्रायः विज्ञापन में लुभावनी प्रतीत होने वाली चीजें बेकार ही निकलती हैं।
गुणवत्ता वाली वस्तु ता बिना विज्ञापन के भी खूब बिकती हैं। कम गुणवत्ता
वाली चीज का ज्यादा आकर्षक विज्ञापन करके उसे बेचने का प्रयास
किया जाता है। विज्ञापन के वशीभूत होकर खरीदी चीज से हमें प्रायः
पछताना पड़ता है।

11. पाठ के आधार पर आज के उपभोक्तावादी युग में पनप रही 'विखावे
की संस्कृति' पर विचार व्यक्त करें।
उत्तर― इस पाठ में दिखावे की संस्कृति पर कटाक्ष किया गया है। दिखावे की इस
संस्कृति ने समाज के विभिन्न वर्गों के बीच दूरी को बढ़ाया है। लोगों की
सामाजिक सरोकरों में कमी आती जा रही है। इस बढ़ते अंतर ने लोगों में
आक्रोश और अशांति को बढ़ाया है। इससे दिखावे की प्रवृत्ति पर शीघ्र
नियंत्रण करना होगा अन्यथा हमारी मूल संस्कृति की नींव हिल जाएगी।
यह संस्कृति भोग को बढ़ावा दे रही है जो हमारी भारतीय संस्कृति से मेल
नहीं खाती।

12. आज की उपभोक्ता संस्कृति हमारे रीति-रिवाज और त्योहारों को किस
प्रकार प्रभावित कर रही है? अपने अनुभव के आधार पर एक
अनुच्छेद लिखें।
उत्तर― आज की उपभोक्ता संस्कृति ने हमारे रीति-रिवाजों और त्योहारों के स्वरूप
को बदलकर रख दिया है, अब हम रीति-रिवाजों को उतनी तत्परता के
साथ नहीं निबाहते जैसा पहले करते थे। अब हम स्वार्थी होते जा रहे हैं।
ये रीति-रिवाज हमें उत्साहित नहीं करते। इसी प्रकार त्योहारों के प्रति भी
हमारे दृष्टिकोण में अंतर आ गया है। अब त्योहार मनाना एक रस्म निभाने
जितना रह गया है। अब हम त्योहारों के आने की प्रतीक्षा नहीं करतें इस
सबका कारण है कि बदली हुई मानसिकता। अब हम स्वार्थ केंद्रित होते
चले जा रहे हैं। सामाजिक सरोकारों के प्रति हमारी रुचि घटती चली जा
रही है। यह प्रवृत्ति घातक है। इससे हम अपनी जड़ों से हट जाएँगे। मेरा
अपना अनुभव भी कुछ ऐसा ही है। अपने आस-पास के वातावरण में मैं
रीति-रिवाजों और त्योहारों के प्रति कोई उत्साह नहीं दिखता।

13. उपभोक्तावादी की संस्कृति में विज्ञापनों की क्या भूमिका है। स्पष्ट
करें।
उत्तर― उपभोक्तावाद की संस्कृति में विज्ञापन सेना का काम करते हैं। वे
उपभोक्तावाद को भड़काते हैं। नकली माँग खड़ी करते हैं। लोगों की
लालच बढ़ाते हैं जिससे वे न चाहते हुए भी वस्तुएँ खरीदते और भोगते चले
जाते हैं। हर विज्ञापन वस्तुओं को नए ढंग से पेश करता है। इससे उपभोक्ता
को पुरानी वस्तु बेकार लगने लगती है। पेस्ट या साबुन को ही लें। इनके
विभिन्न प्रकार उपभोक्ता को पागल बना डालते हैं।

14. सांस्कृति की नियंत्रक शक्तियाँ कौन-सी हैं, जो क्षीण हो चली हैं:
उत्तर― भारतीय संस्कृति की नियंत्रक शक्तियाँ हैं-भारतीय धर्म, परंपराएँ तथा
आस्थाएँ। आज इन्हीं पर से विश्वास उठ गया है। आज न तो धर्म पर
विश्वास रहा है, न मंदिर पर, न पुजारी पर और न संन्यासी पर। इस कारण
पुरानी परंपराएँ और आस्थाएँ खंडित हो चली हैं। लोग अब इनके अनुसार
नहीं चलते, बल्कि पश्चिम से आई उपभोक्तावादी संस्कृति के अनुसार चल
रहे हैं।

15. भारत की सांस्कृतिक अस्मिता किस कारण नष्ट हो रही है ?
उत्तर― भारत की सांस्कृतिक अस्मिता का अर्थ है-भारत की सांस्कृतिक पहचान।
यह पहचान उपभोक्तावादी संस्कृति के प्रसार के कारण नष्ट हो रही है।
भोगवाद में पड़ने के कारण भारतीय लोग अपना धर्म, अपनी परंपराएँ,
अपनी नैतिक विशेषताएँ और मर्यादाएँ खो रहे हैं। वे भारतीयता छोड़कर
'उन्नत इन्सान' बनने की होड़ में पड़ गए हैं।

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